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तेरापंथ - मत समीक्षा |
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बूसरी वस्तु दिखलाई नहीं है। इसके सिवाय आप लोग भवकी परंपराका अर्थ करते हैं, तो क्या पूजा करनेसे भवकी परंपरा बढती है, ऐसा कहना चाहते हो ? | या भवकी परंपरामें हितकर कहना चाहते हो ? | यदि भवकी परंपरा बढे, ऐसा अर्थ करोगे, तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि- सूर्याभदेवने प्रभु. की पूजा तथा नाटक वगैरह किये, तिसपर भी एकावतारी महाविदेह क्षेत्र में 'दृढ प्रतिज्ञ' नाम धारण करके चारित्र लेकर केवली होगा | अब दिखलाइये, कहाँ रही भवकी परंपराका बढना ? । ' परित्तसंसारी ' वगैरह विशेषणोंके होनेके भवकी परंपराका बढना बिलकुल असंभव है ।
अब जिनपूजा, भवपरंपरा में हितकर है, ऐसा कहोगे, तो बस, झगडा समाप्त हुआ। आप लोग भी सूर्याभदेवकी तरह जिनपूजा रोचक हो जाओ ।
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अच्छा अब दूसरी बात देखिये । जैसे और वस्तुएं पूजी, वैसे जिनप्रतिमा भी पूजी, ऐसाभी तुम्हारा कथन ठीक नहीं है । क्योंकि - जिनपूजा की तरह दूसरी वस्तुओंकी पूजा के समय 'आलो पणामं करेइ' ऐसा कहा नहीं है । तथा जिनप्रतिमाकी तरह 'नमुत्थुणं' वगैरह कहा नहीं है । एवं हितकारी - सुखकारीक्षेमकारी - कल्याणकारी वगैरह शब्द भी नहीं कहे हैं । तिसपर भी ३१ वस्तुओं की पूजा तथा जिनेश्वरकी पूजा को एक समान गिनते हो इससे उत्सूत्रभाषीपनेका दोष तुम्हारे सिरपर लगता है कि नहीं, इस बातका विचार करो ।
इसके सिवाय और भी देखो, भगवतीसूत्र के १० वें शतके छठे उद्देशे में पत्र ८७६ में कहा है कि भगवान्की दाढा बगैरह की आशातना देवता लोग नहीं करते हैं । जब दाढा की