Book Title: Terapanth Mat Samiksha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Abhaychand Bhagwan Gandhi

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Page 17
________________ १२ तेरापंथ-मत समीक्षा । नियमानुसार अपनी अपनी आयुष्यको पूरा करके राजा तथा पुरोहित दोनों परलोकमें जा बसे । राजाकी गद्दी पर राजपुत्र पैठा और पुरोहितजीका कार्य पुरोहितजीका लहका करने लगा। परन्तु ये दोनों संस्कृत ज्ञानसे बिलकुल वंचित ही थे। एक दिन पुरोहितकी स्त्रीने अपने पतिसे कहाः- स्वामिनाथ ! राजाके पास अनेकों विद्वान् देश-विदेशसे आते हैं। आपके पिता संस्कृतके परमज्ञाता थे, जिससे समस्त विद्वान् प्रसन्न होकर जाते थे। आपने मोज-शौकमें विद्यारत्न प्राप्त किया नहीं । लेकिन अब आपका अपमान न हो, इस लिये आपको थोडी बहुत संस्कृत विद्या प्राप्त करलेनी चाहिये । धूर्तराद् पुरोहित बोला:-' मूझे सब प्रकारकी विद्याएं कपट देवके प्रसा. दसे प्रसन्न हैं । व्याकरणको तो व्याधिकरण समझता हूं । तथा न्यायको नाई (हजाम) समझता हूँ । तू जराभी फिकर मत कर ।' ऐसा कह करके राजाके पास चला गया। राजाके पास अपनी बडाईका ब्यूगल बजाता हुआ कहने लगाः-'महाराज! आजकल सच्ची विद्या लोगोंमें रही नहीं। सब लोग पांच २ दस २ श्लोक कंठस्थ करके यहाँ आते हैं, और आपको प्रसन्न करके पुष्कल द्रव्य ले जाते हैं। आपके पास अब जो पंडित आवे, उसकी परीक्षा करनी चाहिये । लीजिये, मैं यह श्लोक देता हूँ। इसका अर्थ, जो पंडित आवे, उससे पूछिये, । ऐसा कह करके पुरोहितजीने 'शान्ताकारं पद्मनिलयम्' ऐसे पदवाला एक श्लोक दिया। इसका अर्थ भी उसने राजाको समझा दिया। उसने कहा, 'इसका अर्थ है 'घी खिचडी।। जो पंडित ऐसा अर्थ न करे उसको मूर्ख समझना'।

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