________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 27 विपर्ययप्रसंगो वा विशेषाभावात्। कदाचित्सत्त्वमसत्त्वं च विशेषणमुपचारात्प्रागभावस्येति चेत्, तर्हि न तत्त्वतः कदाचित्सत्त्वं पुनरसत्त्वमहेतुकस्यापि भवतीति सर्वदा सत्त्वस्यासत्त्वस्य वा निवृत्तये सद्दर्शनस्याहेतुकत्वं व्यवच्छेत्तव्यमेव नित्यत्वनित्यहेतुकत्ववत् // निसर्गादिति निर्देशो हेतावधिगमादिति। तच्छब्देन परामृष्टं सम्यग्दर्शनमात्रकम् // 2 // सूत्रेस्मिन्निसर्गादिति निर्देशोधिगमादिति च हेतौ भवन् सम्यग्दर्शनमात्रपरामर्शित्वं तच्छब्दस्य ज्ञापयति तदुत्पत्तावेव तयोर्हेतुत्वघटनात्, ज्ञानचारित्रोत्पत्तौ तयोर्हेतुत्वे सिद्धांतविरोधान्न मार्गपरामर्शित्वमुपपन्नं / सम्यग्ज्ञानं हि निसर्गादेरुत्पद्यमानं निःशेषविषयं नियतविषयं वा ? न तावदादिविकल्पः के वलस्य सकलश्रुतपूर्वकत्वोपदेशान्निसर्गजत्वविरोधात्। सकलश्रुतज्ञानं निसर्गादुत्पद्यत इत्यप्यसिद्धं, परोपदेशाभावे वैशेषिक कहता है कि-प्रागभाव का कदाचित् सत्त्व-असत्त्व विशेषण उपचार से माना गया है (वास्तविक नहीं)। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहते हो तो प्रागभाव के वास्तव में कभी सत्त्व वा असत्त्व नहीं रहा, किन्तु वस्तु मान लेने पर अहेतुक भी प्रागभाव के या तो सत्त्व रहेगा या फिर असत्त्व रहेगा। .. इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के सर्वदा सत्त्व और असत्त्व की निवृत्ति के लिए सम्यग्दर्शन के अहेतुकत्व का व्यवच्छेद करना चाहिए, नित्य और नित्य हेतुकत्व के समान। अर्थात् यदि सम्यग्दर्शन को अहेतुक (बिना कारण उत्पन्न हुआ) माना जाता है तो आत्मा में नित्य ही उसकी सत्ता के सम्बन्ध का प्रसंग आता है, अथवा तुच्छाभाव (निरुपाख्य) कहेंगे तो आत्मा में सम्यग्दर्शन का सर्वदा अभाव हो जाता है अत: इन दोनों दोषों को दूर करने के लिए सम्यग्दर्शन को सहेतुक मानना ही आवश्यक है अत: निसर्ग और अधिगम ये दो हेतु सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण कहे हैं। ___ सूत्र में निसर्गात् (निसर्ग से), अधिगमात् (अधिगम से) यह निर्देश (पंचमी विभक्ति) हेतु रूप अर्थ में कही है तथा 'तत्' शब्द से सम्यग्दर्शन मात्र का ही परामर्श किया गया है, ज्ञान-चारित्र का नहीं॥२॥ __ "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" - इस सूत्र में पंचमी विभक्ति का निर्देश हेतु अर्थ में होता हुआ 'तत्' शब्द से सम्यग्दर्शन मात्र के परामर्शित्व को प्रगट कर रहा है। क्योंकि, सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में ही निसर्ग और अधिगम इन दोनों को हेतुपना घटित हो सकता है। अर्थात् मात्र सम्यग्दर्शन ही इन दो कारणों से उत्पन्न होता है।, ज्ञान एवं चारित्र की उत्पत्ति में इन दोनों हेतुओं को मान लेने पर (ज्ञान और चारित्र भी निसर्ग और अधिगम से उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहने पर) सिद्धान्त का विरोध आता है। अत: यह ज्ञान चारित्र का गमक नहीं है, तथा मार्ग का परामर्शिपना भी नहीं है। अर्थात् मार्ग भी दो कारणों से उत्पन्न नहीं होता। अत: यह तत्' शब्द सम्यग्दर्शन का ही गमक है। . यदि सम्यग्ज्ञान निसर्ग या अधिगम कारण से उत्पन्न होता है तो सम्पूर्ण विषय करने वाला ज्ञान निसर्गादि कारणों से उत्पन्न होता है या नियत विषय वाला ज्ञान ? यदि सम्पूर्ण विषय करने वाले (केवल) ज्ञान को निसर्ग (कारणों) से उत्पन्न हुआ मानते हो तो सकल श्रुत के ज्ञान पूर्वकत्व के उपदेश से उत्पन्न होने वाले केवलज्ञान के निसर्गजत्व का विरोध आता है। अर्थात् केवलज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक ही होता है। यदि