Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 349 संशयः? तथा निश्चयानुपपत्तेरिति चेन्न, सुगतस्यापि तत्र तत्प्रसंगात् / तस्य विधूतक्ल्पनाजालत्वान्न स्वरूपे संशय इति चेत्; तदिदमनवस्थितप्रज्ञास्यसुभाषितं संवेदनाद्वैततत्त्वं प्रतिज्ञाय विधूतकल्पनाजाल: सुगतः, पृथग्जना: कल्पनाजालावृत्तमनस इति भेदस्य कथनात् / कथं च संवेदनाद्वैतवादिनः संवृत्तिपरमार्थसत्यद्वयविभाग: सिद्धः ? संवृत्त्येति चेत् , सोऽयमन्योन्यसंश्रयः / सिद्धे हि परमार्थसंवृत्तिसत्यविभागे संवृत्तिराश्रीयते तस्यां च सिद्धायां तद्विभाग इति कुतः किं सिद्ध्येत्, तन्न तत्त्वतो ग्राह्यग्राहकभावाभावे स्वेष्टसाधनं नामेति विनिश्चयः॥ वाला व्यवहार वास्तविक नहीं ह, कल्पित है, उसी प्रकार कल्पना से कल्पित ग्राहक द्वारा जानने योग्य होने के कारण शुद्ध संवेदन भी पारमार्थिक नहीं हो सकेगा। 'शुद्ध संवेदन के स्वरूप की ज्ञप्ति स्वत: हो जाती है' ऐसा सौगत के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस शून्य संवेदन में संशय कैसे होता है ? अर्थात् स्वतः संवेद्यमान है, वह सर्वत्र प्रतिभासित रहता है। परन्तु सौगत के द्वारा स्वीकृत संवेदन में अनेक पुरुषों को संशय होता है। चूंकि शुद्ध संवेदन का सबको निश्चय नहीं होता है इसलिए किसी-किसी को संशय होता है ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा कहने पर तो सुगत के भी उस संवेदन का निश्चय न होने से संशय होने का प्रसंग आयेगा अर्थात् बुद्ध के भी निर्विकल्प ज्ञान स्वीकार किया है, निश्चय ज्ञान नहीं माना है। यदि कहो कि सौगत का ज्ञान विकल्प जाल से रहित है अत: स्वरूप में संशय नहीं है (संशय तो कल्पना ज्ञान है) तो यह अविचारशील (चंचलबुद्धिवाले) का कथन है अर्थात् जिसकी बुद्धि किसी निर्णीत मार्ग पर स्थित नहीं है, वे ही ऐसा कह सकते हैं, अन्य नहीं। संवेदनाद्वैतवादी के मत का निराकरण बौद्ध जन शुद्ध संवेदन तत्त्व के पूर्व में अद्वैत की प्रतिज्ञा करके पुनः “बुद्धदेव कल्पना से रहित हैं और संसारी जीव कल्पना जाल से आवृत्त मन वाले हैं" इस प्रकार भेद का कथन करते हैं। परन्तु अद्वैत को मानकर पुन: द्वैत को पुष्ट करना यह बुद्धिमान का काम नहीं है। ___संवेदनाद्वैतवादी के यहाँ संवेदन के कल्पना सत्य और वास्तविक सत्य-ये दो विभाग सिद्ध कैसे हो सकते हैं। यदि संवृत्ति (व्यवहार) से कल्पनासत्य और वास्तविक सत्य यह विभाग किया जाता है तो यह अन्योऽन्याश्रय दोष है। क्योंकि वास्तविक सत्य और कल्पना सत्य का विभाग सिद्ध हो जाने पर संवृत्ति (व्यवहार) का आश्रय लिया जाता है और संवृत्ति के सिद्ध हो जाने पर काल्पनिक सत्य और वास्तविक सत्य का विभाग करना सिद्ध होता है इस प्रकार परस्पराश्रय दोष के उत्थान में किससे किसकी सिद्धि हो सकती है ? इसलिए वास्तविक रूप से ग्राह्य-ग्राहक भाव के अभाव में अपने इष्ट साधन की नाम मात्र भी सिद्धि नहीं हो सकती है। ऐसा निश्चय करना चाहिए।

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406