Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 392
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *379 करणज्ञानवत्। तत्र हि मन:प्रभृति साधारणं कारणं चक्षुराद्यसाधारणमन्यतरापाये तदनुपपत्तेः / तद्वत्सकलवृत्तिमतां वृत्तौ काल: साधारणं निमित्तश्चोपादानमसाधारणमिति युक्तं पश्यामः / खादि तन्निमित्तं साधारणमितिचेन्न, तस्यान्यनिमित्तत्वेन प्रसिद्धः। केनचिदात्मना तत्तन्निमित्तत्वमपीतिचेत् स एवात्मा काल इति न तद्भावः / तथा सति कालो द्रव्यं न स्यादिति चेन्न, तस्य द्रव्यत्वेन वक्ष्यमाणत्वात्। स्वहेतोर्जायमानस्य कुतश्चिद्विनिवर्तते। पुनः प्रसूतित: पूर्वं विरहोंतरमिष्यते // 54 // काल एव स चेदिष्टं विशिष्टत्वान्न भेदतः / सूचनं तस्य सूत्रेस्मिन् कथंचिन्न विरुध्यते // 55 // क्योंकि उस करण ज्ञान में मन, इन्द्रिय आदि साधारण कारण हैं और चक्षु आदि इन्द्रियाँ तथा चक्षुरादि इन्द्रियों के आवरण का क्षयोपशम असाधारण कारण हैं। भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय रूप वा साधारण और असाधारण कारण में से किसी भी कारण का अपाय (अभाव) होने पर जैसे कारण ज्ञान नहीं हो सकता, उसी प्रकार सम्पूर्ण वर्तना वाले पदार्थों की परिणति होने में काल द्रव्य साधारण कारण है, निमित्त कारण है और पदार्थों की परिवर्तन करने की स्वकीय शक्ति असाधारण उपादान कारण हैं। यह हम युक्तिपूर्वक देखते हैं। ___पदार्थों के परिवर्तन में आकाश आदि निमित्त कारण (साधारण कारण) हैं-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि उन आकाश आदि की अन्य अवगाह आदि कार्यों के निमित्तपने से सिद्धि है ही अर्थात् “यदि कहो कि किसी एक स्वरूप से वह आकाश उस वर्त्तना का भी निमित्त हो जायेगा" -ऐसा कहने पर तो वह काल द्रव्य ही है। उस काल द्रव्य के अभाव में पदार्थों की वर्तना नहीं हो सकती। अत: काल द्रव्य का अभाव नहीं हो सकता। "ऐसा होने पर काल द्रव्य सिद्ध नहीं होता है ?" ऐसा कहना उचित नहीं है-क्योंकि पाँचवें अध्याय में मुख्य काल द्रव्य का वर्णन करेंगे। भावार्थ : द्रव्यों के परिवर्तन में कारणभूत काल द्रव्य तत्त्वों के कथन में निमित्तभूत है-पदार्थों के जानने का साधन काल है। इस प्रकार काल का कथन समास हुआ। अब अन्तर को कहते हैं: स्वकीय अंतरंग, बहिरंग कारणों से उत्पन्न पदार्थों की किसी विनाश-कारण से निवृत्ति हो जाने पर पुनः कालान्तर में उसकी उत्पत्ति होने पर पूर्व का व्यवहित समय अन्तर माना जाता है॥५४॥ ____ "उत्पन्न पदार्थ के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी उत्पत्ति होने के व्यवधान को यदि अन्तर कहा जाता है तो वह अन्तर काल ही है। अर्थात् काल से भिन्न दूसरा अन्तर नहीं है। अत: सूत्र में काल से पृथक् अन्तर का निरूपण करना व्यर्थ है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि सामान्य काल से अन्तर काल में विशिष्टता होने के कारण अन्तर का पृथक् कथन करना हमने इष्ट किया है। अत: सूत्र में अन्तर का कथन करना कथञ्चित् विरुद्ध नहीं है॥५५॥

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