Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 396
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 383 सत्त्वेन निश्चिता-भावा गम्यते संख्यया बुधैः। संख्याताः क्षेत्रतो ज्ञेयाः स्पर्शनेन च कालतः॥ 60 // तथांतराच्च भावेभ्यो ज्ञायतेल्पबहुत्वतः। क्रमादिति तथैतेषां निर्देशो व्यवतिष्ठते // 61 // प्रश्नक्रमवशाद्वापि विनेयानामसंशयम्। नोपालंभमवाप्नोति प्रत्युत्तरवचः क्रमः // 62 // ___ ततो युक्त एव सूत्रे सदादिपाठक्रमः शब्दार्थन्यायाविरोधात्। सामान्येनाधिगम्यंते विशेषेण च तैर्यथा। जीवादयस्तथा ज्ञेया व्यासेनान्यत्र कीर्तिताः॥ 63 // जीवस्तत्र संसारी मुक्तश्च, संसारी स्थावरश्च त्रसश्च, स्थावरः पृथिवीकायिकादिरेकेंद्रियः सूक्ष्मो बादरश्च, सूक्ष्मः पर्याप्तकोपर्याप्तकश्च, तथा बादरोपि, त्रसः पुनर्दीन्द्रियादिः पर्याप्तकोऽपर्याप्तकश्चेति सामान्येन विशेषेण से भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार विस्तारपूर्वक प्ररूपित किये गए तत्त्वार्थों के अधिगति के हेतु जानना चाहिए अर्थात् नाम आदि निक्षेप, निर्देश आदि अनुयोग और सत् संख्यादि सर्व वस्तु के जानने के उपाय तथा नैगमादिनय सभी प्रमाण के ही भेद हैं। ___ 'सत्' के द्वारा निश्चित हुए पदार्थ को बुद्धिमान, संख्या के द्वारा जान जाते हैं। संख्या के द्वारा निश्चित पदार्थ क्षेत्र के द्वारा, स्पर्शन के द्वारा, काल के द्वारा तथा अन्तर काल, भाव और अल्पबहुत्व के द्वारा जाने जाते हैं इस प्रकार उक्त क्रम से पदार्थों का निर्णय होता है। विनीत शिष्यों के प्रश्नों के क्रमवश प्रत्युत्तर वचनों का क्रम नि:संशय है अत: सूत्र में कथित सत् आदि अनुयोगों का क्रम किसी भी उलाहने को प्राप्त नहीं होता है॥६०-६१-६२॥ - इसलिए सूत्र में शब्द सम्बन्धी और अर्थ सम्बन्धी न्याय के अविरोध होने से सत् संख्या आदि के पढ़ने का क्रम युक्त ही है। भावार्थ : शब्द शास्त्र की दृष्टि से शिष्यों की व्युत्पत्ति की वृद्धि के लिए तथा शिष्यों के प्रश्नानुसार उत्तर देने के लिए. अर्थदृष्टि से सत्संख्यादि का क्रम रखना युक्त ही है। . ___यहाँ सामान्य और विशेष रूप से जीवादि पदार्थों का अधिगम होता है। इस ग्रन्थ में संक्षेप से कथन किया है, विस्तार से कथन अन्यत्र (अन्य ग्रन्थों से) जानना चाहिए // 63 // इन सात तत्त्वों में जीव संसारी और मुक्त के भेद से दो प्रकार के हैं। संसारी त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। स्थावर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर हैं। सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। बादर भी दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त, अपर्याप्त आदि के भेद से अनेक प्रकार के हैं। इस प्रकार सामान्य और विशेष के द्वारा जीव सत्ता रूप से जाने जाते हैं। उसी प्रकार संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन आदि के द्वारा भी जीवादि तत्त्वों का अधिगम होता है। इसी प्रकार अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों का कथन भी सत् संख्या आदि के द्वारा करना चाहिए।

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