Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji
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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 366 कथं शक्त्यात्मकं सर्वं स्यात्। न हि दहनस्य दहनयुक्तावनुमानप्रत्यय: स एवोद्यानशक्तौ यत्सूत्रप्रत्ययप्रतिनियमो न भवेदिति कश्चित्, सोप्युक्तानभिज्ञ एव / न हि वयं शक्तीनां संकरं ब्रूमो व्यक्तीनामिव तासां कथंचित्परस्परमसांकर्यात् / किं तर्हि, भावस्यैकस्य यावंति कार्याणि कालत्रयेपि साक्षात्पारंपर्येण वा तावत्यः शक्तयः संभाव्यंत इत्यभिदध्महे प्रत्येकं सर्वभावानां कथंचिदनुकार्यस्य कस्यचिदभावात् / सर्वं कृतकमेकांततस्तथा स्यादितिचेन्न, सर्वथा सर्वेण सर्वस्योपकार्यत्वासिद्धेः। द्रव्यार्थतः कस्यचित्केनचिदनुपकरणात् / न चोपकार्यत्वानुपकार्यत्वयोरेकत्र विरोधः, संविदि वेद्यवेदकाकारवत् प्रत्यक्षतरस्वसंविद्वद्याकारविवेकवद्वा निर्बाधनात्प्रत्ययात्तथा सिद्धेः / अन्यथा कस्यचित्तत्त्वनिष्ठानासंभवात्। नन्वेवं सर्वत्र सर्वसंख्यया संप्रत्ययासत्त्वात् (एकमेक) कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि अग्नि की दाह करने रूप शक्ति में जो अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है, वही अनुमान ज्ञान अग्नि की निस्सरण या ऊर्ध्वज्वलन शक्ति में ज्ञापक नहीं है जिससे कि वहाँ ज्ञान के होने का प्रतिनियम नहीं होता हो अर्थात् भिन्न-भिन्न शक्तियों में जब भिन्न-भिन्न ज्ञान होता है तो शक्ति रूप से सर्व शक्तियों को सर्वात्मकपना क्यों इष्ट किया जाता है ? ऐसा कोई कहता है ? समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाला हमारे अभिप्राय को नहीं समझता है क्योंकि हम शक्तियों का भी परस्पर में संकर हो जाना नहीं कहते हैं। व्यक्तियों के समान उन शक्तियों के भी परस्पर में कथंचित् असंकर रूप से परस्पर भेद है। प्रश्न : जैन क्या मानते हैं ? उत्तर : “एक पदार्थ के तीनों काल में भी अव्यवहित रूप से या परम्परा से जितने भी कार्य हो चुके हैं या हो रहे हैं अथवा होंगे, उतनी ही शक्तियाँ उस पदार्थ की संभावित होती हैं" ऐसा हम मानते हैं। प्रत्येक पदार्थ सम्पूर्ण पदार्थों का कथंचित् अनुकरण करने योग्य कार्य होय, ऐसे किसी भी पदार्थ का सद्भाव नहीं माना है अर्थात् सभी कार्यों में से कोई भी एक कार्य (पर्याय) सम्पूर्ण भावों (पदार्थों) का अनुकरण करे ऐसा जैन सिद्धान्त नहीं है। ___ “ऐसा मानने पर तो सम्पूर्ण पदार्थ एकान्त रूप से कृतक ही हो जाएंगे"। ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि सर्वथा सर्व पदार्थों के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के उपकारत्व का अयोग है। (उपकारत्व की असिद्धि है।) क्योंकि, अनादि अनन्त द्रव्यार्थ (द्रव्यार्थ नय) की अपेक्षा किसी का किसी के द्वारा उपकार नहीं होता है। (द्रव्य नित्य और अकारण है) पर्याय दृष्टि से उपकारक उपकार्य भाव है। एक पदार्थ में उपकार्यत्व और अनुपकार्यत्व का विरोध नहीं है जैसे सौगत के द्वारा स्वीकृत संवेदन में वेद्याकार और वेदकाकार दोनों अविरोध रूप से रहते हैं। अथवा, वेद्य वेदक आकारों से रहित शुद्ध संवेदन ज्ञान में स्वसंवेदन अंश प्रत्यक्ष रूप माना है वे और वेद्य, वेदक, संवित्ति आदि आकारों के पृथक्पने को परोक्ष रूप माना है। इसी प्रकार बाधारहित ज्ञान से गोचर उपकार्य अनुपकार्यपने की एक पदार्थ में सिद्धि हो रही है। अन्यथा (यदि बाधारहित ज्ञान से वस्तु की व्यवस्था नहीं मानते हैं तो) किसी भी वादी के स्वकीय अभीष्ट तत्त्वों का प्रतिष्ठित होना संभव नहीं है।

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