Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 381
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 368 व्यक्तिरूपतया त्वसती साक्षात्स्वप्रत्ययाविषयत्वादिति द्रव्यार्थप्राधान्यादुपेयते / पर्यायार्थप्राधान्यात्तु सापेक्षा कार्या तद्भावभावात् / न ह्यसत्यामपेक्षायां द्वित्वादिसंख्योत्पद्यत इति न भावस्य व्यक्तसंख्यापेक्षया सर्वसंख्यात्मकत्वं यतस्तद्वत् सर्वं सर्वात्मकत्वं यतस्तद्वत्प्रसज्यते। तत्प्रसंग एव च सर्वत्र सर्वसंख्याप्रत्ययस्य . यथासंभवमनुभूयमानस्य बाधकः स्यात् तदबाधिताच्च संख्याप्रत्ययात् सिद्धा वास्तवी संख्या। ततो निर्बाधनादेव प्रत्ययात्तत्त्वनिष्ठितौ / संख्यासंप्रत्ययात्सत्या तात्त्विकीति व्यवस्थितम् // 27 // यत्र निर्बाधः प्रत्ययस्तत्तात्त्विकं यथोभयप्रसिद्धं वस्तुरूपं, निर्बाधप्रत्ययश्च संख्यायामिति सा तात्त्विकी सिद्धा॥ सा नैव तत्त्वतो येषां तेषां द्रव्यमसंख्यकम् / संख्यातोत्यन्तभिन्नत्वाद्गुणकर्मादिवन्न किम् // 28 // क्योंकि साक्षात् (अव्यवहित रूप से) अपने संख्या ज्ञान में विषयभूत नहीं हुई थी। इस प्रकार तीनों काल में अन्वित रहने वाले द्रव्य रूप अर्थ की प्रधानता से संख्या को नित्य स्वीकार करते हैं। अल्प काल रहने वाली पर्यायरूप अर्थ की प्रधानता से संख्या कारणों की अपेक्षा रखने वाली होने से कार्य भी है। अपेक्षा के होने पर (उन दो, तीन आदि पदार्थों के होने पर) ही संख्या का सद्भाव पाया जाता है। अपेक्षा के नहीं होने पर द्वित्व, त्रित्व आदि संख्या कभी भी उत्पन्न नहीं होती है अतः पदार्थों की व्यक्त हुई संख्याओं की अपेक्षा से सम्पूर्ण संख्याओं के साथ तदात्मकता नहीं है जिससे कि उस शक्ति के समान व्यक्ति रूप से भी पदार्थों के सर्व स्वरूप हो जाने का प्रसंग आवेगा और सम्पूर्ण पदार्थों में यथायोग्य संभव होकर असंभव किये जाने वाले सम्पूर्ण संख्याओं के ज्ञान का वह प्रसंग बाधक हो जावे अर्थात् सर्व संख्याओं के ज्ञान का प्रसंग नहीं आता है अतः बाधा रहित संख्या ज्ञान से (वास्तविक संख्या ज्ञान से) वास्तविक संख्या सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार सौगत ने द्वित्व आदि संख्या को सर्वथा अनित्य माना है और सांख्य ने संख्या को सर्व प्रकार नित्य ही माना है परन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार संख्या कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। बाधा रहित प्रमाण ज्ञानों के द्वारा यदि तत्त्वों की व्यवस्था होना माना जाता है तो संख्या के समीचीन ज्ञान से संख्या भी वास्तविक सिद्ध होती है। इस प्रकार संख्या द्वारा तत्त्वों का प्ररूपण करना व्यवस्थित है॥२७॥ जिस विषय में निर्बाध प्रमाण है, वह पदार्थ वास्तविक है। जैसे वादी और प्रतिवादी दोनों के यहाँ प्रसिद्ध वस्तु स्वरूप वास्तविक है। संख्या भी निर्बाध प्रमाण से सिद्ध है-अतः वह वास्तविक है और वह परमार्थभूत सिद्ध है।। जिन वैशेषिक आदि के सिद्धान्त में संख्या वास्तविक नहीं है, उनके सिद्धान्त में संख्या से अत्यन्त भिन्न होने के कारण गुण, कर्म, सामान्य आदि के समान द्रव्य संख्या रहित क्यों नहीं होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे॥२८॥

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