Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 382
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 369 समवायवशादेवं व्यपदेशो न युज्यते। तस्यैकरूपताभीष्टे नियमाकारणत्वतः // 29 // संख्या तद्वतो भिन्नैव भिन्नप्रतिभासत्वात् सह्यविंध्यवदित्येके, तेषां द्रव्यमसंख्यं स्यात् संख्यातोत्यंतभिन्नत्वाद्गुणादिवत्। तत्र संख्यासमवायात्ससंख्यमेव तदिति चेत् न, तद्वशादेवं व्यपदेशस्यायोगात्। न समवायः संख्यावद्र्व्यमिति व्यपदेशनिमित्तं नियमाकारणत्वात् / प्रतिनियमाकारणं समवायः सर्वसमवायिसाधारणैकरूपत्वात् सामान्यादिमत्तु द्रव्यमिति प्रतिनियतव्यपदेशनिमित्तं समवाय इत्यप्यनेनापास्तं। “समवाय के वश से (समवाय सम्बन्ध से) संख्या वाले द्रव्य का व्यवहार हो जायेगा"- ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि वैशेषिक ने उस समवाय को एकस्वरूप अभीष्ट किया है अर्थात् वैशेषिकों ने सर्व जगद्व्यापी समवाय एक ही माना है। “एक एव समवायस्तत्त्वं भावेन" ऐसा कणाद का सूत्र है इसलिए समवाय भी अनेक स्थानों पर नियमित व्यवहार का कारण नहीं हो सकता // 29 // . संख्या वाले द्रव्यों से संख्या गुण भिन्न ही है क्योंकि संख्या और संख्यावान का भिन्न-भिन्न प्रतिभास होता है, जैसे सह्याचल और विन्ध्याचल का भिन्न-भिन्न प्रतिभास होने से वे दोनों भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा कोई (वैशेषिक) कहता है। जैनाचार्य कहते हैं, ऐसा कहने वालों के गुणादिक के समान संख्या से अत्यन्त भिन्न होने से द्रव्य असंख्यात हो जायेंगे। संख्या के समवाय सम्बन्ध से द्रव्य संख्यात हो जायेंगे ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि संख्या के “संयोग से संख्यावान है" ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकता। अर्थात् जिस प्रकार भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानवान नहीं होता है, तादात्म्य सम्बन्ध से ज्ञानवान है, उसी प्रकार संख्या के सम्बन्ध से द्रव्य संख्यावान है, ऐसा व्यपदेश नहीं होता है-संख्या के साथ तादात्म्य सम्बन्ध से संख्यावान कहलाता है। . तथा नियम का कारण न होने से समवाय सम्बन्ध “संख्यावान द्रव्य है" इस व्यपदेश का निमित्त नहीं हो सकता है, इसी को अनुमान द्वारा सिद्ध करते हैं-समवाय सम्बन्ध पदार्थों के संयोग कराने में प्रतिनियमित कारण नहीं है अर्थात् ज्ञान का संयोग आत्मा के साथ कराना और रूप, रस आदि का पुद्गल के साथ सम्बन्ध कराना, यह समवाय का नियम नहीं है क्योंकि समवाय सर्व द्रव्यों में साधारण रूप से एक ही है। भावार्थ : जो एक रूप होता है वह भिन्न-भिन्न अधिकरणों में संयोग कराने का नियामक नहीं होता है। “सामान्य (जाति), गुण, कर्म आदि सहित जीवादि द्रव्यों में 'द्रव्यं' यह द्रव्य है, इस प्रकार प्रतिनियत व्यपदेश (व्यवहार) का कारण समवाय है" इस प्रकार का वैशेषिक का कथन भी उक्त कथन से खण्डित हो जाता है।

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