Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 387
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 374 चेन्न तस्या निरस्तत्वात् / ननु च क्षेत्रत्वं कस्य प्रमाणस्य विषयः स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षस्य तत्र तस्यानवभासनात् / न हि प्रत्यक्षभूभागमात्रप्रतिभासमाने कारणविशेषरूपे क्षेत्रत्वमाभासते कार्यदर्शनात्त्वनुमीयमानं कथं वास्तवमनुमानस्यावस्तुविषयत्वादिति कश्चित्, सोप्ययुक्तवादी। वस्तुविषयत्वादनुमितेरन्यथा प्रमाणतानुपपत्तेरिति वक्ष्यमाणत्वात्॥ ननु निर्देशादिसूत्रेधिकरणवचनादिह क्षेत्रस्य वचनं पुनरुक्तं तयोरेकत्वादिति शंकामपनुदन्नाह; "तथा अपेक्षाकृत माने गए पदार्थ प्रमाण के विषय नहीं हैं" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि अपेक्षा से होने वाला सुख, उससे अधिक सुख, नील, नीलतर (अधिक नीला रंग), नीलतम (उससे भी अधिक नीला) आदि के प्रमाण के विषय होने की सिद्धि है। “शुद्ध संवेदन को मानने वाले सौगत के सुख सुखतर, नील नीलतर आदि आपेक्षिक वस्तु ज्ञान का विषय नहीं है" ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि ग्राह्य ग्राहक भाव आदि से रहित शुद्ध संवेदन अद्वैत का पूर्व में खण्डन कर दिया गया है। __ अर्थात् जो आपेक्षिक होता है वह ज्ञान का विषय नहीं होता है-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि "नील है, यह अधिक नील है"- इत्यादि आपेक्षिक नील आदि पदार्थ प्रमाण के विषय होते ही हैं। प्रश्न : क्षेत्र किस प्रमाण का विषय है ? क्षेत्र प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय तो हो नहीं सकता, क्योंकि उस प्रत्यक्ष (इन्द्रिय प्रत्यक्ष) ज्ञान में क्षेत्र का प्रतिभास नहीं होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सामान्य भू (पृथ्वी) भाग का प्रतिभास हो जाने पर भी विशेष कारण रूप क्षेत्र का प्रतिभास नहीं होता है। भावार्थ : जैसे सामान्य दो पुरुषों को देखने पर कौन गुरु है और कौन शिष्य है ? ऐसा विभाग प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कर सकता, उसी प्रकार सामान्य पृथ्वी के दृष्टिगोचर होने पर भी प्रत्यक्ष ज्ञान कारण विशेषक्षेत्र का ज्ञान नहीं कर सकता। यद्यपि निवासस्थान रूप कार्य के दृष्टिगोचर होने से कारण स्वरूप क्षेत्र अनुमान ज्ञान का विषय होता है परन्तु अनुमान ज्ञान का विषय अवस्तु है, कल्पित है अत: अनुमान ज्ञान का विषयभूत क्षेत्र वास्तविक कैसे हो सकता है, ऐसी किसी (बौद्ध) की शंका है। अर्थात् बौद्ध कहता है कि क्षेत्र अनुमान ज्ञान का विषय होने से वास्तविक नहीं है। उत्तर : जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाला बौद्ध युक्तिवादी नहीं है क्योंकि अनुमान प्रमाण वास्तविक अर्थ को विषय करता है। अन्यथा (यदि अनुमान ज्ञान वास्तविक अर्थ को विषय नहीं करता है तो) अनुमान ज्ञान प्रामाणिक नहीं हो सकता। इसका कथन आगे ज्ञान का वर्णन करते समय करेंगे। निर्देशादि सूत्र में अधिकरण का कथन है। उस अधिकरण के कथन से क्षेत्र का कथन हो ही जाता है, पुनः क्षेत्र का कथन करना पुनरुक्त दोष से युक्त है क्योंकि क्षेत्र और अधिकरण इन दोनों में एकत्व है, इस प्रकार की शंका को दूर करते हुए आचाय कहते हैं:

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