________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 361 पीताद्याकारेषु निश्चयोत्पत्तेस्तद्वेदने तत्प्रतिभासनमिति मतं तदा संख्याप्रतिभासनमपि तत एवानुमन्यतां / न हि तदभ्यासादिप्रत्ययासाकल्ये सर्वस्याक्षव्यापारान्निश्चयः संख्यायामसिद्ध इति कश्चित् पीताद्याकाराद्विशेष: संख्यावत्पीताद्याकाराणामपि वस्तुन्यभाव एवेति वायुक्तं, सकलाकाररहितस्य वस्तुनोऽप्रतिभासनात् पुरुषाद्वैतवत्। विधूतसकलकल्पनाकलापं स्वसंवेदनमेव स्वतः प्रतिभासमानं सकलाकाररहितं वस्तु मतमिति चेत् तदेव ब्रह्मतत्त्वमस्तु न च तत्प्रतिभासते कस्यचिन्नानैकात्मन एव सर्वदा प्रतीतेः। सर्वस्य प्रतीत्यनुसारेण तत्त्वव्यवस्थायां बहिरंतश्च वस्तुभेदस्य सिद्धेः। कथं पीताद्याकारवत् संख्यायाः प्रतिक्षेपः प्रतीत्यतिक्रमे कुतः स्वेष्टसिद्धिरित्युक्तप्रायं। ततःसा चैकत्वादिसंख्येयं सर्वेष्वर्थेषु वास्तवी। विद्यमानापि निर्णीतिं कुर्याद्धेतोः कुतश्चन // 18 // प्रतिक्षणविनाशादि बहिरंतर्यथास्थितेः / स्वावृत्त्यपायवैचित्र्याद्बोधवैचित्र्यनिष्ठितेः॥ 19 // संख्या के समान पीतादि आकारों का भी वस्तुभूत पदार्थों में अभाव ही है-ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि पुरुषाद्वैत के समान सकल आकारों से रहित वस्तु का प्रतिभास नहीं होता है। सम्पूर्ण कल्पनाओं के समुदाय से विशेष रूप से रहित स्वसंवेदन ज्ञान ही स्वयमेव प्रतिभासमान सकल आकारों से रहित वस्तुभूत है, स्वलक्षण नीलाकार, पीताकार, संख्यादि पदार्थ वस्तुभूत नहीं हैं। इस प्रकार बौद्धों के कथनानुसार ब्रह्माद्वैतवादियों का परम ब्रह्म तत्त्व भी वस्तुभूत सिद्ध हो जाता है परन्तु वह ब्रह्माद्वैत किसी को भी प्रतिभासित नहीं होता है क्योंकि एक और अनेक रूप से पदार्थ सदा प्रतिभासित होता है-ऐसी प्रतीति होती है। सभी प्रामाणिक पुरुषों की प्रतीति के अनुसार तत्त्वों की व्यवस्था होने पर बहिरंग, अंतरंग वस्तुओं के भेद की सिद्धि होती है। इसलिए पीतादि आकारों के समान संख्या का खण्डन कैसे कर सकते हैं ? यदि प्रतीतियों का अतिक्रमण किया जायेगा तो अभीष्ट तत्त्वों की सिद्धि कैसे हो सकती है ? इसका कथन पूर्व में कर चुके हैं। ये प्रसिद्ध एकत्व, द्वित्व आदि संख्यायें सम्पूर्ण अर्थों में वास्तविक रूप से विद्यमान होकर भी किसी विशिष्ट ज्ञान रूप कारणवश अपना निर्णय कराती हैं जैसे कि अंतरंग और बहिरंग सभी पदार्थ बौद्धमतानुसार प्रत्येक क्षण में नष्ट हो जाने से वर्तमान रूप से स्थित हैं अर्थात् क्षण-क्षण में विनश जाना ही वर्तमान है और क्षणिकपना विशिष्ट ज्ञान से ही जाना जाता है क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप नाश की विचित्रता से ज्ञान की विचित्रता होना प्रतिष्ठित ही है। प्रत्येक पदार्थ एक दो आदि संख्या रूप है, जैसे शुद्ध दृष्टि से जीव एक ही है, परन्तु विशिष्ट दृष्टि से संसारी, मुक्त ; त्रस, स्थावर आदि अनेक भेद पाये जाते हैं। वे संख्या के बिना ज्ञात नहीं हो सकते // 1819 // अर्थात् जाने नहीं जा सकते। अथवा प्रमेय पदार्थ की सत्ता ही प्रमाताओं को निश्चय कराने में हेतु नहीं है क्योंकि यदि सत्ता ही पदार्थों के निश्चय कराने में कारण होती तो सर्वदा सभी जीवों के सभी पदार्थों के