Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 365
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 352 . स्वयमिष्टानिष्टयोः साधनदूषणे परं प्रति वाग्भिः प्रकाशयित्वातीत्य वाचकभावं निराकरोति कथं स्वस्थः / नो चेत् कथमिष्टानिष्टयोः साधनदूषणमिति चिंत्यं / संवृत्त्या चेत् न तया तस्योक्तस्याप्यनुक्तसमत्वात्। स्वप्नादिवत्संवृत्तेसृषारूपत्वात् / तदमृषारूपत्वे परमार्थस्य संवृतिरिति नामकरणमात्रं स्यात्ततो न ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यं संवित्तिमात्रमपि शून्यसाधनाभावात् सर्वशून्यतावत्॥ . तत्सत्प्ररूपणं युक्तमादावेव विपश्चिताम् / क्वान्यथा परधर्माणां निरूपणमनाकुलम् // 12 // . ___ सत्प्ररूपणाभावेऽर्थानां धर्मिणामसत्त्वात् क्व संख्यादिधर्माणां प्ररूपणं सुनिश्चितं प्रवर्तते शशविषाणादिवत् / कल्पनारोपितार्थेषु तत्प्ररूपणमिति चेत् न तेष्वपि कल्पनारोपितेन रूपेणासत्सु न तन्निरूपणं स्वयं इष्ट शुद्ध संवेदनाद्वैत का साधन और स्वयं को अनिष्ट द्वैत के दूषण को दूसरे वादी या शिष्य के प्रति वचनों के द्वारा प्रतिपादन करके भी वाच्य-वाचक भाव का उल्लंघन करके निराकरण करता है, वह बौद्ध स्वस्थ कैसे है (अर्थात् स्व वचन का विरोधक होने से उन्मत्त है।) यदि वे बौद्ध वचनों के द्वारा पर (दूसरों) के प्रति पदार्थों का प्रतिपादन करना नहीं मानते हैं तो स्वकीय इष्ट तत्त्व का साधन और अनिष्ट . तत्त्व का दूषण कैसे कर सकेंगे ? इसका स्वयं बौद्धों को विचार करना चाहिए। “परमार्थ से इष्ट का साधन और अनिष्ट का दूषण नहीं कहा जाता है, अपितु व्यवहार से कहा जाता हे" ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि व्यवहार (असत्यकल्पना) से कहा गया साधन और दूषण का वचन नहीं कहे हुए के समान है। स्वप्नावस्था या मूर्छावस्था में उच्चरित शब्द व्यर्थ होते हैं क्योंकि बौद्ध सिद्धान्त में संवृत्ति (व्यवहार) को सर्वथा असत्य माना है। यदि संवृत्ति को सत्यरूप मानते हो तब तो परमार्थ का नामकरण मात्र ही संवृत्ति सिद्ध होती है अर्थात् संवृत्ति कहो या परमार्थ कहो, यह नाम मात्र में भेद रहेगा, वास्तव भेद नहीं है अतः संवृत्ति से वाच्यवाचक भाव है। यह वास्तविक वाच्य वाचक भाव है इसलिए ग्राह्य-ग्राहक भाव आदि से शून्य भी संवित्ति मात्र सिद्ध नहीं है, क्योंकि सर्व शून्यता के समान ज्ञान से अतिरिक्त शून्यता के साधन का भी अभाव है। ___ सम्पूर्ण प्ररूपणा की आदि में विद्वज्जनों के लिए सत्प्ररूपणा (पदार्थों के सद्भाव का प्ररूपण करना) ही समुचित है। अन्यथा (वस्तु के सद्भाव के निर्णय हुए बिना) अन्य संख्या आदि धर्मों का आकुलता रहित प्रतिपादन हो नहीं सकता॥१२॥ ___ पदार्थों के सद्भाव का निरूपण किए बिना (सत्प्ररूपणा के अभाव में धर्मियों का असत्त्व होने से) संख्या आदि धर्मों की प्ररूपणा का सुनिश्चित प्रवर्तन कैसे हो सकता है ? अर्थात् सत्प्ररूपणा के बिना संख्या आदि धर्मों का प्रतिपादन नहीं हो सकता क्योंकि 'सत्' धर्म है और वह आधारभूत धर्मी के बिना संख्या आदि धर्मों का कथन नहीं कर सकता जैसे खरगोश के सींग का अस्तित्व ही नहीं है तो उनकी संख्या आदि का कथन नहीं हो सकता। “कल्पना से आरोपित पदार्थों में 'सत्' की प्ररूपणा होती है" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि कल्पना से आरोपित स्वरूप वाले उन असत् पदार्थों में 'सत्' की प्ररूपणा करना युक्तिसंगत नहीं

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