________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 229 “एकानेकविकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् / प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयैर्नयविशारद" इत्यतिदेशवचनात् तदनंतत्वस्याप्रतिषेधात् / ननु च प्रतिपर्यायमेक एव भंगः स्याद्वचनस्य न तु सप्तभंगी तस्य सप्तधा वक्तुमशक्तेः। पर्यायशब्दैस्तु तस्याभिधाने कथं तन्नियमः सहस्रभंग्या अपि तथा निषेद्धुमशक्तेरिति चेत् नैतत्सारं, प्रश्नवशादिति वचनात् / तस्य सप्तधा प्रवृत्तौ तत्प्रतिवचनस्य सप्तविधत्वोपपत्तेः प्रश्नस्य तु सप्तधा प्रवृत्ति: वस्तुन्येकस्य पर्यायस्याभिधाने पर्यायांतराणामाक्षेपसिद्धेः / कुतस्तदाक्षेप इति चेत् तस्य तन्नांतरीयकत्वात्। यथैव हि क्वचिदस्तित्वस्य जिज्ञासायां प्रश्नः प्रवर्तते तथा तन्नांतरीयके नास्तित्वेपि क्रमार्पितोभयरूपत्वादौ चेति जिज्ञासाया: आचार्यों ने भी अस्तित्व, नास्तित्व आदि विकल्प से सप्तभंगी के उदाहरण देकर कहा है कि इस प्रकार अस्तित्व, नास्तित्व धर्मों के समान एक, अनेक, नित्य, अनित्य, तत् ,अतत् आदि उत्तरोत्तर धर्मों में भी इस सप्त भंग के आधीन होने वाली प्रक्रिया को नयवाद में प्रवीण स्याद्वादी विद्वानों को युक्तिपूर्वक लगा लेना चाहिए। इस प्रकार आचार्यों के वाक्य से उस सप्तभंगी के अनन्तपने का निषेध नहीं है किन्तु विधान है, अर्थात् अनन्त धर्मों की अपेक्षा अनन्त सप्त भंगियाँ हो सकती शंका : प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा वचन का भंग एक ही होना चाहिए , सात भंग नहीं हो सकते। क्योंकि एक ही अर्थ को सात प्रकार से कहना शक्य नहीं है। यदि इन्द्र, पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्दों के द्वारा उस सप्तभंगी का निरूपण करेंगे तो सात का ही नियम कैसे हो सकता है ? पर्यायवाची शब्दों के द्वारा तो हजारों भंगों का भी निषेध करना शक्य नहीं है अर्थात् पर्यायवाची शब्दों के द्वारा हजारों भंग हो सकते हैं ___समाधान : ऐसा कहना भी सारभूत नहीं है, क्योंकि सप्तभंगी प्रश्न के अनुसार ही कही गई है, क्योंकि प्रश्नों की सात प्रकार से प्रवृत्ति होने पर उनके प्रत्युत्तर रूप वचन भी सात प्रकार के होते हैं तथा प्रश्नों की सात प्रकार की प्रवत्ति वस्त में एक पर्याय के अभिधान में अन्य पर्यायों के प्रतिषेध, अवक्तव्य आदि का आक्षेप करने पर सप्तभंगी सिद्ध होती है, अर्थात् एक पर्याय का अभिधान (कथन) करने पर उसके साथ गम्यमान छह प्रकार के छह धर्मों का अर्थापत्ति से ग्रहण हो जाता है, उनको प्रश्न में डालकर सात भंग हो जाते हैं। प्रश्न : उन सात भंगों के कथन से क्या लाभ है ? उत्तर : विधि रूप एक धर्म का कथन नास्तित्व आदि छह धर्मों के बिना नहीं हो सकता है, उसका उनके साथ अविनाभाव है। जिस प्रकार किसी में अस्तित्व को जानने की इच्छा होने पर नियम से अस्तित्व का प्रश्न प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार उसके अस्तित्व के अविनाभावी नास्तित्व में भी और क्रम से विवक्षित अस्तित्व नास्तित्व के उभय रूप या अस्त्यवक्तव्य आदि में जिज्ञासा सात प्रकार की होती है अत: जिज्ञासु के प्रश्न भी सात प्रकार के हो जाते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर में दिये गए वक्ता के वचन भी सात प्रकार के होते हैं।