________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 231 स्वरूपनास्तित्वं तु यत्तत्प्रतिषेध्यं तेनाविनाभावित्वेन स्वरूपास्तित्वस्य व्याघातस्तेनैव रूपेणास्ति नास्ति चेति प्रतीत्यभावात् / तथा स्वेष्टतत्त्वेस्तित्वमेवानिष्टतत्त्वे नास्तित्वमिति न तत्प्रतिषेध्यं येन तस्य तदविनाभावित्वं सिद्ध्येत् / तेनैव तु रूपेण नास्तित्वं विप्रतिषिद्धमिति कथं निदर्शनं नाम प्रकृतसाध्ये स्यादिति चेन्न, हेतोस्त्रिरूपत्वादिविरोधात् / स्वेष्टतत्त्वविधौ चावधारणवैयर्थ्यात् / पक्षसपक्षयोरस्तित्वमन्यत्साधनस्य विपक्षे नास्तित्वं ब्रुवाणः स्वेष्टतत्त्वस्य च कथमेकस्य विधिप्रतिषेधयोर्विप्रतिषेधानिदर्शनाभावं विभावयेत् / क्वचिदस्तित्वसिद्धिसामर्थ्यात्तस्यान्यत्र नास्तित्वस्य सिद्धेर्न रूपांतरत्वमिति चेत् व्याहतमेतत् सिद्धौ सामर्थ्यसिद्धं च न रूपांतरं चेति कथमवधेयं कस्यचित् क्वचिन्नास्तित्वसामर्थ्याच्चास्तित्वस्य सिद्धेस्ततो रूपांतरत्वाभावप्रसंगात् / सोयं भावाभावयोरेकत्वमाचक्षाणः सर्वथा न क्वचित्प्रवर्तेत नापि कुतश्चिन्निवर्तेत यदि स्वरूप से नास्तित्व को उसका प्रतिषेध्य माना जाएगा तो स्वरूप के नास्तित्व के साथ स्वरूप अस्तित्व का अविनाभावी रूप से कथन करने पर व्याघात दोष आता है अर्थात् अपने स्वरूप से ही अस्तित्व और अपने स्वरूप से नास्तित्व मानने पर परस्पर व्याघात दोष आता है। तथा अपने स्वरूप से अस्तित्व और अपने स्वरूप से ही नास्तित्व रूप प्रतीति का अभाव है, तथा स्व इष्ट तत्त्व का अस्तित्व ही अनिष्ट तत्त्व का नास्तित्व है। इस प्रकार भी वस्तु का प्रतिषेध (अभाव) नहीं हो सकता जिससे अस्तित्व धर्म के साथ नास्तित्व धर्म का अविनाभाव सिद्ध हो सकता हो। जिस रूप से अस्ति है उसी रूप से नास्ति है। इसमें तुल्य विरोध वा व्याघात दोष आता है, इसलिए प्राप्त सात धर्मों के अविनाभावी साध्य को सिद्ध करने के लिए अनुमान में दिया गया दृष्टान्त कैसे ठीक हो सकता है? __ उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर हेतु के त्रिधारूपत्व का विरोध आता है (बौद्ध मत में पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति ये हेतु के तीन स्वरूप माने गये हैं। उनकी सिद्धि नहीं होती) अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनेक धर्मों को माने बिना चार्वाक के इष्ट तत्त्व के विधान करने में एवकार के द्वारा अवधारणा करना व्यर्थ है अर्थात् चार्वाक के सिद्धान्त में पृथ्वी आदि चार तत्त्व हैं अन्य आत्मा, पुण्यपाप, परलोक आदि नहीं हैं ऐसा विधान नहीं हो सकता। - पक्ष और सपक्ष में हेतु का अस्तित्व भिन्न है और विपक्ष में हेतु का नास्तित्व भिन्न है, ऐसा कहने वाला अपने अभिप्रेत एक इष्टतत्त्व की विधि और निषेध का प्रतिषेध हो जाने से दृष्टान्त के अभाव का विचार कैसे करेगा ? अर्थात् इष्ट, अनिष्ट तत्त्वों के विधि-निषेध का अविनाभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि इष्ट तत्त्व की विधि अनिष्ट तत्त्व के निषेध बिना नहीं हो सकती, और अनिष्ट तत्त्व का निषेध विधि के बिना नहीं हो सकता। यदि बौद्ध कहे कि अस्तित्व की सिद्धि के सामर्थ्य से उसका दूसरे स्थानों में नास्तित्व स्वयमेव सिद्ध हो जाता है अतः अस्तित्व और नास्तित्व भिन्न-भिन्न पदार्थ नहीं हैं, तो जैनाचार्य कहते हैं कि इस कथन में व्याघात दोष आता है। क्योंकि एक की सिद्धि हो जाने पर दूसरे को सामर्थ्य से सिद्ध कहना और