________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 323 "भावे भाविनि तद्भावो भाव एव च भाविता। प्रसिद्ध हेतुफलते प्रत्यक्षानुपलभतः॥" "एतावन्मात्रतत्त्वार्थाः कार्यकारणगोचराः / विकल्पा दर्शयंत्यर्थान् मिथ्यार्थान् घटितानिव॥” “भिन्ने का घटनाऽभिन्ने कार्यकारणतापि का / भावे वान्यस्य विश्लिष्टौ श्लिष्टौ स्यातां कथं न तौ // " इति। तदेतदसद्दूषणं / स्वाभिमतेप्यकार्यकारणभावे समानत्वात् / तथाहि। अकार्यकारणभावोद्विष्ठ एव कथमसहभाविनोः कार्यकारणत्वाभ्यां निषेध्ययोरर्थयोर्वर्तते। न वा द्विष्ठोसौ संबंधाभावत्त्वविरोधात् / पूर्वत्र भावे वर्तित्वा परत्र क्रमेण वर्तमानोपि यदि सोन्यनिस्पृह एवैकत्र कार्य नामक पदार्थ के होने पर कारण का भाव होना ही कारणत्व है। और कारण के होने पर ही कार्य का होना कार्यत्व है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से हेतुता एवं कार्यता दोनों प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार भाव, अभाव ही कार्य-कारणता है, उससे भिन्न नहीं अतः केवल इतने ही भाव और अभाव रूप तत्त्व का विषय लेकर उत्पन्न होने वाले असत्य विकल्पज्ञान कार्य-कारण का विषय कर रहे हैं, और असत्य अर्थ को विषय करने वाले वे विकल्प ज्ञान प्रत्येक असम्बद्ध पदार्थ को भी परस्पर सम्बद्धों के समान दिखलाते हैं। अथवा, यह कार्य-कारण भाव को प्राप्त हुआ अर्थ भिन्न है या अभिन्न है? यदि कार्य-कारण भाव को प्राप्त हुआ अर्थ सर्वथा भिन्न है तो भिन्न पदार्थों में संयोजना (कार्य कारणता) कैसे घटित हो सकती है? क्योंकि, वे स्वकीय-स्वकीय पृथक्-पृथक् स्वभावों में व्यवस्थित हैं। यदि अभिन्न मानोगे तो अभिन्न (अकेले) में कार्य, कारणता कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। - यदि सर्वथा भिन्न और अभिन्न न मानकर एक सम्बन्ध नाम के पदार्थ से जुड़े हुए पदार्थों का सम्बन्ध मानते हैं तो वे भिन्न सम्बन्ध से विभक्त स्थित वे कार्य-कारण रूप दो पदार्थ मिले हुए कैसे हो सकते हैं ? (अत: साधन नामक पदार्थ नहीं है।) अब जैनाचार्य इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि इस प्रकार दूषण उठाना समीचीन नहीं है, क्योंकि जैसे बौद्धों के द्वारा कार्य-कारण भाव में दूषण दिये हैं वे दूषण बौद्धों के द्वारा स्वीकृत अकार्य-कारण भाव में भी समान रूप.से उपस्थित हैं। उसी को स्पष्ट करते हैं; द्विष्ठ अकार्य-कारण भाव कार्य-कारण भाव के द्वारा निषेध्य दो असहभावी अर्थों में कैसे रहता है ? यह अकार्य-कारण भाव अद्विष्ठ (दो में नहीं रहने वाला) भी नहीं है। (द्विष्ठ दो में रहने वाला है) क्योंकि अकार्य-कारण भाव को दो में रहने वाला नहीं मानने पर उसके सम्बन्धाभाव का विरोध आता है। पूर्व भाव में रहकर पुनः दूसरे पदार्थ में रहता हुआ वह अकार्यकारण भाव यदि अन्य की स्पृहा (अपेक्षा) नहीं करता है तो एक में रहने वाला वह असम्बन्ध कैसे हो सकता है। अभी तक नहीं उत्पन्न, परवर्ती पदार्थ के न होने पर भी पूर्व समयवर्ती पदार्थ में रहने वाला और पूर्व पदार्थ के नष्ट होने के कारण अभाव हो जाने पर भी उत्तर समयवर्ती पदार्थों में रहता हुआ वह असम्बन्ध एक में ही रहेगा। “पूर्व पदार्थ में रहने वाला असम्बन्ध परकी अपेक्षा करता है और पर समयवर्ती पदार्थों में रहता हुआ पूर्व समयवर्ती पदार्थ की अपेक्षा रखता है, अत: अन्य निस्पृहता न होने के कारण असम्बन्ध दो में रहने वाला ही है।" ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि अनुपकारक पूर्व पदार्थ उत्तर पदार्थ की