Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 357
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 344 न हि प्रमाणनयात्मभिरेव निर्देशादिभिर्जीवादिषु भावसाधनोधिगमः कर्तव्य इति युक्तं तद्विषयैरपि निर्दिश्यमानत्वादिभिः कात्स्न्यैकदेशार्पितैः कर्मसाधनस्याधिगमस्य करणात् तेषामुक्तप्रमाणसिद्धत्वादिति व्यवतिष्ठते॥ यथागममुदाहार्या निर्देष्टव्यादयो बुधैः। निश्चयव्यवहाराभ्यां नयाभ्यां मानतोपि वा // 28 // निश्चयनय एवंभूतः व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्यार्थिकस्ताभ्यां निर्देष्टव्यादयो यथागममुदाहर्तव्या विकलादेशात् प्रमाणतश्च सकलादेशात् / तद्यथा / निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीवः व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभावः, निश्चयतः स्वपरिणामस्य व्यवहारतः सर्वेषां, निश्चयतो “प्रमाणनयैरधिगमः" इस सूत्र के अनुसार प्रमाण नय स्वरूप निर्देश आदि के द्वारा जीव आदि पदार्थों में भाव साधन निरुक्ति से सिद्ध किया गया अधिगम करना चाहिए। इतना ही युक्त नहीं है किन्तु प्रमाण और नय के साथ में प्रमाण और नयों के विषयभूत सर्वदेश एवं एकदेश से विवक्षित किये गये निर्देश करने योग्य, स्वामी पने को प्राप्त आदि के द्वारा कर्म साधन से निरुक्ति से अधिगम करना चाहिए। निर्देश आदि भी प्रमाण सिद्ध व्यवस्थित हैं। भावार्थ : “निर्दिश्यते अनेन इति निर्देशः" इस प्रकार करण साधन के द्वारा निर्देश आदि की सिद्धि . करना चाहिए। और “अधिगमनं अधिगमः” इस प्रकार भाव साधन के द्वारा अधिगम को सिद्ध करने पर. वस्तु को पूर्ण रूप से तथा एकदेश से जानने वाले प्रमाण, नय, स्वरूप निर्देश आदि के द्वारा जीवादिकों का अधिगम होता है तथा 'निर्दिश्यते यत्' इस प्रकार कर्म में यत् प्रत्यय कर पुनः शानच् और तद्धित के 'त्व' प्रत्यय करने पर साधे गये निर्देश्यमानत्व आदिकों से 'अधिगम्यते यत्' जो जाना जाये ऐसा कर्मसाधन अधिगम किया जाता है। विषय और विषयी दोनों में पूर्णदेश और एकदेश से जानलिया गया पन और जानलेना पन व्यवस्थित हो रहा है अतः ग्रन्थकार का विषयी और विषय की अपेक्षा उक्त दोनों सूत्र बनाना सार्थक है। ___ व्यवहार और निश्चयनय के द्वारा तथा प्रमाण के द्वारा बुद्धिमानों को आगमानुसार निर्देश करने योग्य, स्वामिपने को प्राप्त आदि पदार्थों को जान लेना चाहिए और उनके उदाहरण बना लेने चाहिए॥२८॥ एवंभूतनय ही निश्चयनय है, और अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय व्यवहार नय है। इन निश्चय और व्यवहार नय के द्वारा निर्देश करने योग्य जीवादि पदार्थों का आगमानुसार कथन करना चाहिए। वस्तु के विकल अंश को ग्रहण करने वाले विकलादेशी नय वाक्य के द्वारा और वस्तु के सकल अंश को ग्रहण करने वाले सकलादेशी प्रमाण वाक्य के द्वारा वस्तु के स्वरूप को जानना चाहिए। जैसे-निश्चय नय से अनादि पारिणामिक चैतन्य लक्षण जीवत्व परिणत जीव है अर्थात् इस परम पारिणामिक भाव रूप जीव के कर्मों के उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम की अपेक्षा नहीं है। व्यवहार नय की अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक इन चारों भाव स्वरूप परिणत को जीव कहते हैं। निश्चय नय से जीव स्वकीय ज्ञान दर्शन रूप

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