Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 338
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 325 पश्यद्विनाप्याख्यातभिरकार्यमवबुध्यते / न च तथा दर्शनादर्शने मुक्त्वा क्वचिदकार्यबुद्धिरस्ति / न च तयोरकार्यादिश्रुतिर्विरुध्यते लाघवार्थत्वात् तन्निवेशस्य। या पुनरतद्भावाभावादकार्यगतिरुपवर्ण्यते सा संकेतविषयाख्या, यथा असास्नादेरगोगतिः / नैतावता तत्त्वतोकार्यकारणभावो नाम। भावे हि अभाविनी वा भाविता अहेतुफलते प्रसिद्धे। प्रसिद्धे प्रत्यक्षानुपलंभाभ्यामेव / तदेतावन्मात्रतत्त्वार्था एवाकार्यकारणगोचरा विकल्पा दर्शयंत्यर्थान् मिथ्यार्थात्स्वयमघटितानपीति समायातं / भिन्ने हि भावे का नामाघटना तत्क्वान्यावभासते? येनासौ तात्त्विकी स्यात् / अभिन्ने सुतरां नाघटना / न च भिन्नावों केनचिदकार्यकारणभावेन योगादकार्यकारणभूतौ स्यातां संबंधविधिप्रसंगात् / तदेवं न तात्त्विकोऽर्थो नाम कार्यकारणभावो व्यवतिष्ठतेऽकार्यकारणभाववत् / स्वस्वभावव्यवस्थितार्थान् विहाय नान्यः कश्चिदकार्यकारणभावोस्त्विति / तथा व्यवहारस्तु कल्पनामात्रनिर्मित एव कार्यकारणव्यवहारवदितिचेत् तर्हि वास्तव एव 'यह इसका अकारण है,' ऐसा स्वयं समझ लेते हैं। दर्शन, अदर्शन या इनके विषयभाव अभाव को छोड़कर कहीं भी अकार्य बुद्धि नहीं होती है तथा भाव और अभाव ही अकार्य हैं और अकारण हैं इत्यादि शब्द प्रयोग भी उन दोनों में विरुद्ध नहीं पड़ते हैं क्योंकि उन शब्दों का निवेश करना लाघव के लिए है। जो फिर उस भाव, अभाव के न होने से अकार्यपने का ज्ञान होना कहा जाता है, वह केवल संकेत विषय की व्याख्या करने वाला है। जैसे कि सास्ना आदिक के अभाव से गौ से भिन्न अगो (पदार्थ) का ज्ञान कर लिया जाता है। इतने मात्र से परमार्थ रूप से अकार्यकारण भाव कैसे भी नहीं बन सकता अत: अकार्य रूप भाव के न होने पर अकारण का होना अथवा अकारण के न होने पर अकार्य का होना ही अहेतु फलपना प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुपलंभ से ही अकार्यता और अकारणता प्रसिद्ध हो जाती है। इतना मात्र ही तत्त्व अर्थ, अकार्य कारणगोचर विकल्प दिखाता है। अतः वे असत्य मिथ्या अर्थ को विषय करने वाले हैं। भिन्न पदार्थ में असम्बन्ध भी क्या हो सकता है ? और वह असम्बन्ध भिन्न रहकर कहाँ प्रतिभासित होता है? अर्थात् वह असम्बन्ध पदार्थों से पृथक् कहीं भी प्रतिभासित नहीं होता है, जिससे वह असम्बन्ध तात्त्विक हो सकता हो। अभिन्न पदार्थों में सुलभता से असम्बन्ध नहीं हो सकता, तथा भिन्न पड़े हुए अर्थ भी किसी अकार्यकारण भाव से बँध जाने के कारण अकार्य और अकारण स्वरूप हो जायेंगे। और ऐसा होने पर बौद्धों को वास्तविक सम्बन्ध के विधान करने का प्रसंग आएगा अत: इस प्रकार अकार्य कारण भाव भी वास्तविक अर्थ सिद्ध नहीं हो सकता। जैसे बौद्धों के कार्य-कारण भाव नहीं बनता है। ___निज स्वभाव में व्यवस्थित हो रहे पदार्थों को छोड़कर अन्य कोई अकार्यकारण भाव नहीं है तथा लोक में जो अकार्य कारण की व्यवस्था है, वह केवल कल्पना-कल्पित है, जैसे कार्य कारण भाव का

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