Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 333
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 320 कल्पनामेवानुरुंधानैः प्रतिपत्तृभिः क्रियाकारकवाचिन: शब्दाः संयोज्यंतेऽन्यापोहप्रतीत्यर्थमेवेति घटते येनेदं शोभेत / “तामेव चानुरुंधानैः क्रियाकारकवाचिनः / भावभेदप्रतीत्यर्थं संयोज्यंतेऽभिधायिकाः // " इति क्रियाकारकादीनां संबंधिनां तत्संबंधस्य च वस्तुरूपप्रतीतये तदभिधायिकानां प्रयोगसिद्धेः सर्वत्रान्यापोहस्यैव शब्दार्थत्वनिराकरणाच्च। ततः कश्चित्कस्यचित्स्वामी संबंधात्सिध्यत्येवेति स्वामित्वमर्थानामधिगम्यं निर्देश्यत्ववदुपपन्नमेव // न किंचित्केनचिद्वस्तु साध्यते सन्न चाप्यसत् / ततो न साधनं नामेत्यन्ये तेप्यसदुक्तयः॥१३॥ साधनं हि कारणं तच्च न सदेव कार्यं साधयति स्वरूपवत् , नाप्यसत्खरविषाणवत् / प्रागसत्साधयतीति न वा युक्तं, सदेव साधयतीति पक्षानतिक्रमात् / न ह्युत्पत्तेः प्रागसत् प्रागेव कारणं निष्पादयति, तस्यासत एव निष्पादनप्रसक्तेः। उत्पत्तिकाले सदेव करोतीति तु कथनेन कथं न सत्पक्षः / कथंचित्सह करोतीत्यपि न प्रतिपत्ताओं (ज्ञाताओं) के द्वारा अन्यापोह की प्रतीति के लिए क्रियाकारकवाची शब्द जोड़ लिये जाते हैं, यह कथन घटित नहीं होता जिससे कि सौगत का यह सिद्धान्त शोभित होता हो कि “कल्पनाओं का अनुरोध करने वाले ज्ञाताओं के द्वारा भावों के भेद की प्रतीति कराने के लिए क्रियावाची और कारकवाची शब्द जोड़ लिये जाते हैं अर्थात् सौगत सिद्धान्त में क्रिया काल में कारक नहीं है अतः क्रिया-कारक सम्बन्ध नहीं है। वाच्य-वाचक भाव भी नहीं हैं अतः सौगत का कथन सुष्ठु नहीं है क्योंकि क्रिया, कारक, ज्ञापक, आदि सम्बन्धियों और उनके सम्बन्ध के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान करने के लिए उनके कहनेवाले शब्दों का प्रयोग करना सिद्ध है तथा सब स्थानों पर अन्यापोह ही शब्द का वाच्य अर्थ है इसका निराकरण कर दिया गया है इसलिए कोई एक विवक्षित पदार्थ किसी एक का स्वस्वामी सम्बन्ध हो जाने से स्वामी सिद्ध हो ही जाता है। इस प्रकार पदार्थों का निर्देश्यपने के समान स्वामीपना भी जानने योग्य है। अब साधन अनुयोग का विचार करते हैं : सत् वस्तु किसी साधन (कारण) के द्वारा सिद्ध नहीं की जाती है और सर्वथा असत् वस्तु भी किसी साधन के द्वारा सिद्ध नहीं की जाती है अतः साधन नामक कोई पदार्थ नहीं है, ऐसा अन्य कोई वादी (कार्यकारण भाव को नहीं मानने वाले बौद्ध) कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि यह भी असद् उक्ति है, अर्थात् समीचीन नहीं है॥१३।। क्योंकि, कार्य-कारण भाव दृष्टिगोचर है। साधन का अर्थ कारण है और यह साधन रूप कारण स्वरूप के समान सत् कार्य को सिद्ध नहीं करता है और गधे के सींग के समान असत् कार्य को भी सिद्ध नहीं करता है। “पूर्व में जो असत् है उसको साधन सिद्ध करता है"-ऐसा कहना भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि इस कथन से सत् कार्य ही साधन बनता है इस पक्ष का अतिक्रमण नहीं होता है अर्थात् सत् पदार्थ को ही कारण सिद्ध करता है अत: सिद्ध साधन है। उत्पत्ति के पूर्व असत् कार्य को कारण पूर्व में ही बना लिया है-इस प्रकार तो नहीं कह सकते क्योंकि, ऐसा मानने पर असत् कार्य के उत्पादन का प्रसंग आता है। अर्थात् कारण असत् पदार्थों का उत्पादक हो जायेगा। उत्पत्ति काल में कारण सद् पदार्थों को ही उत्पन्न करता है-ऐसा कहने

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