________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 160 च द्रव्यादिषट्पदार्थानामन्यतमनिमित्तोऽयं तदनुरूपत्वात् प्रतीतेः, नाप्यनिमित्तः कदाचित्क्वचिद्भावात् / ततोस्यापरेण हेतुना भवितव्यं सतो विशेषणविशेष्यभावः संबंधशेषः पदार्थशेषेष्वविनाभाववदिति समवायवदभाववद्वा विरोधस्य क्वचिद्विशेषणत्वसिद्धौ तस्यापि विशेषणविशेष्यभावस्य स्वाश्रयविशेषाश्रयिणः कुतस्तद्विशेषणत्वं / परस्माद्विशेषणविशेष्यभावादितिचेत् तस्यापि स्वविशेष्यविशेषणत्वं / परस्मादित्यनवस्थादप्रतिपत्तिविशेष्यस्य विशेषणप्रतिपत्तिमंतरेण तदनिष्टेः, नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरिति वचनात् / सुदूरमपि गत्वा विशेषणविशेष्यभावस्यापरविशेषणविशेष्यभावाभावेपि स्वाश्रयविशेषणत्वोपगमे ज्ञान दण्डरूप विशेषण, पुरुष रूप विशेष्य और संयोग रूप संबंध इन तीनों को विषय करता है। घट' यह ज्ञान भी घट घटत्व और समवाय इन तीनों को जानता है वैसे ही विरोधी, समवायी, अभाववान ये ज्ञान भी विशेषण और विशेष्य से अतिरिक्त किसी मध्यवर्ती संबंध के बिना नहीं हो सकते हैं। इन विरोधी समवायी अभाववान ज्ञानों का द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छह भाव पदार्थों में से अन्यतम कोई एक निमित्त कारण नहीं हो सकता क्योंकि उन द्रव्य आदिकों के अनुसार होने वाले ज्ञानों की सरूपता इन ज्ञानों में प्रतीत नहीं होती है अर्थात् द्रव्य गुण आदिक को कारण मानकर होने वाले ज्ञानों से विरोधी, समवायी, अभाववान ज्ञान विलक्षण हैं। तथा विरोधी समवायी आदि ज्ञान कदाचित् क्वचित होते हैं अत: उनको अनिमित्तक भी नहीं कह सकते अर्थात् कार्य में देश काल आदि की नियतता बिना निमित्त नहीं हो सकता। इसलिए उक्त विशिष्ट ज्ञान का द्रव्य, गुण, समवाय आदि से भिन्न कोई हेतु होना चाहिए। अत: इनका (विरोधी और विरोध का) संयोग, संयुक्त समवाय, संयुक्त समवेत समवाय, समवाय और समवेत समवाय इन पाँच संबंधों से पृथक्भूत विशेषण विशेष्य भाव संबंध माना जाता है। यह संबंध जीवादि सात पदार्थों से अतिरिक्त शेष बचे धर्म स्वरूप अन्य पदार्थों में गिना जाता है। जैसे हेतु और साध्य का अविनाभाव संबंध सप्त पदार्थों से भिन्न है इस प्रकार समवाय अथवा अभाव के समान विरोध भी किसी का विशेषण हो सकता है, यह सिद्ध होता है इसलिए वैशेषिक दर्शन में विशेषण विशेष्य भाव सिद्ध है। उत्तर : जैनाचार्य कहते हैं कि विरोधियों में विरोध के विशेष्य भाव संबंध मान लेने पर विशेषण विशेष्य भाव संबंध दो पदार्थों में रहने वाला धर्म है वह अपने आश्रय विशेष में रहने वाला आश्रयी (आधेय) में किस संबंध से स्थित होकर उसका विशेषण बनेगा? वह विशेषण विशेष्य भाव संबंध दूसरे विशेषण विशेष्यभाव से संबंध को प्राप्त होता है, ऐसा कहोगे तो उसके भी स्व विशेषण विशेष्य सम्बन्ध दूसरा विशेषण विशेष्य संबंध होगा और उसका फिर तीसरे विशेषण विशेष्य भाव से संबंध होगा अतः अनवस्था दोष प्राप्त होने से विशेषण विशेष्य संबंध का ज्ञान नहीं हो सकेगा क्योंकि विशेषण के ज्ञान के बिना विशेष्य का ज्ञान होना इष्ट नहीं है। वैशेषिक दर्शन में भी कहा है कि “विशेषण को ग्रहण किये बिना विशेष्य को विषय करने वाला ज्ञान नहीं होता है।" इसलिए बहुत दूर जाकर भी विशेष्य विशेषण भाव का दूसरे विशेष्य विशेषण भाव के बिना भी यदि अपने विशेष्य विशेष रूप विशेष्य आश्रयों में विशेषण हो जाना स्वीकार करोगे तो उसी प्रकार समवाय, अभाव ओर विरोध का भी विशेषणपना उस विशेष्य विशेषण