________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *190 तस्यासिद्धव्याप्तिकत्वात् / प्रथमानुमानात्तद्व्याप्तिसिद्धौ परस्पराश्रयणात् / सति सिद्धव्याप्तिके विपक्षे बाधकेनुमाने प्रथमानुमानस्य सिद्धव्याप्तिकत्वं तत्सिद्धौ च तत्सद्भाव इति / विपक्षे बाधकस्यानुमानस्यापि परस्माद्विपक्षे बाधकानुमानाद्व्याप्तिसिद्धौ सैवानवस्था / एतेन व्यापकानुपलंभात् सत्त्वस्य क्षणिकत्वेन व्याप्तिं साधयन् निक्षिप्तः। सत्त्वमिदमर्थक्रियाया व्याप्तं साधनं क्रमयोगपद्याभ्यां, ते चाक्षणिकाद्विनिवर्तमानेर्थक्रियां स्वव्याप्यां निवर्तयतः। सापि निवर्तमाना सत्त्वं / ततस्तीरादर्शिशकुनिन्यायेन क्षणिकत्व एव सत्त्वमवतिष्ठत इति हि प्रमाणांतरं क्रमयोगपद्ययोरर्थक्रियया तस्याश्च सत्त्वेन व्याप्यव्यापकभावस्य सिद्धौ सिद्ध्यति / तस्य वाध्यक्षतः सिद्ध्यसंभवेऽनुमानांतरादेव सिद्धौ कथमनवस्था न स्यात् ? तत्सिद्धावपि नाक्षणिके क्रमयोगपद्ययोनिवृत्तिः के सिद्ध हो जाने पर प्रथम अनुमान की व्याप्ति सिद्ध होती है और व्याप्ति सिद्ध प्रथम अनुमान के सिद्ध हो जाने पर उसकी व्याप्ति का सद्भाव सिद्ध होता है। विपक्ष में बाधक अनुमान की व्याप्ति का निर्णय भी यदि विपक्ष में बाधक दूसरे अनुमान से सिद्ध करोंगे तो अनवस्था दोष आता है। (जहाँ व्यापक नहीं है वहाँ व्याप्य नहीं रह सकता। जैसे वृक्ष के न रहने पर शीशम नहीं रह सकता अतः अक्षणिकरूप विपक्ष में अर्थक्रिया और क्रम तथा यौगपद्य रूप व्यापकों के न दीखने से व्याप्य रूप सत्त्व भी नहीं दीखता है) अतः सत्त्व हेतु की अक्षणिक के साथ व्याप्ति का अभाव होने से क्षणिक के साथ सत्त्व हेतु की व्याप्ति को सिद्ध करने वाले बौद्ध का इस उक्त कथन से निराकरण हो जाता है। “यह सत्त्व अर्थक्रिया से व्याप्त है और वह अर्थक्रिया क्रम और योगपद्य के साथ व्याप्त है। तथा वे क्रम और योगपद्य यदि अक्षणिक पदार्थ से निवृत्त होते हैं तो अपने में व्याप्य अर्थक्रिया को भी निवृत्त कर लेता है और निवृत्त होती हुई अर्थक्रिया भी अपने व्याप्य सत्त्व को हटा लेती है अर्थात् अर्थक्रिया सत्त्व पदार्थ में होती है, परन्तु नित्य पदार्थ में नहीं अपितु क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया होती है। अर्थक्रिया के न होने पर सत्त्व पदार्थ का अभाव हो जाता है। इसलिए तीर को नहीं देखने वाले पक्षी के अनुसार सत्त्व हेतु क्षणिकत्व के होने पर ही अवस्थित रहता है। भावार्थ : जैसे नौका के ऊपर स्थित पक्षी को नौका ही शरण है-अन्य कोई उपाय नहीं है उसी प्रकार अर्थक्रियाकारक पदार्थों के क्षणिकपना ही शरण है। इस प्रकार सौगत के कथनानुसार व्याप्ति को सिद्ध करने के लिए दूसरा प्रमाण देना तब सिद्ध होता है जबकि क्रम और यौगपद्य का अर्थक्रिया के साथ और अर्थक्रिया का सत्त्वके साथ व्याप्य व्यापक भाव सिद्ध हो जाता है परन्तु अर्थक्रिया की सत्त्व के साथ व्यापक, व्याप्य भाव की सिद्धि प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा नहीं हो सकती है। प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सिद्धि होना असंभव है। यदि अर्थक्रिया के साथ होने वाले सत्त्व के साथ व्याप्य व्यापक भाव अनुमानान्तर से सिद्ध किया जाता है तो अनवस्था दोष कैसे नहीं आता है, अवश्य आता है, अर्थात् अनुमान प्रमाणों की प्रवृत्ति व्याप्ति