________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 216 न च चेतनं पौगलिक द्रव्यनयनादीति न साधकतमं, यतः प्रमाणं सिद्धयेत् / छिदौ परश्वादिना साधकतमेन व्यभिचार इति चेन्न, स्वार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाभावस्य साध्यत्वात् / न हि सर्वत्र साधकतमत्वं प्रमाणत्वेन व्याप्तं परश्वादेरपि प्रमाणत्वप्रसंगात् / भावनेत्रादिचेतनं प्रमाणमिति तु नानिष्टं तस्य कथंचित्साधकतमत्वोपपत्तेः, आत्मोपयोगस्य स्वार्थप्रमितौ साधकतमत्वात्तस्य भावेंद्रियत्वोपगमात्॥ हानादिवेदनं भिन्नं फलमिष्टं प्रमाणतः / तदभिन्नं पुनः स्वार्थाज्ञानव्यावर्तनं समम् // 42 // स्याद्वादाश्रयणे युक्तमेतदप्यन्यथा न तु / हानादिवेदनस्यापि प्रमाणादिभिदेक्षणात् // 43 // हानोपादानानपेक्ष्यं ज्ञानं व्यवहितं फलं प्रमाणस्याज्ञानव्यावृत्तिरव्यवहितमित्यपि स्याद्वादाश्रयणे युक्तमन्यथा तदयोगात् , हानादिज्ञानस्यापि प्रमाणात् कथंचिदव्यवधानोपलब्धेः सर्वथा व्यवहितत्वासिद्धेः / तथाहि “परशु (कुठार) आदि अचेतन पदार्थ छेदन क्रिया में साधकतम होते हैं, अत: चेतन पदार्थ ही अर्थक्रिया में साधकतम हैं-यह हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है- चेतन और अचेतन दोनों ही साधकतम हैं" ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्त अनुमान के द्वारा स्वार्थ परिच्छित्ति में साधकतमत्व के अभाव को साध्य किया है, अर्थात् कुठार आदि ज्ञप्ति क्रिया के साधकतम नहीं हैं-अपितु छेदन क्रिया के साधकतम हैं। सभी क्रियाओं का साधकतमपना प्रमाण के साथ व्याप्ति नहीं रखता है। अन्यथा कुठार आदि के भी प्रमाणत्व का प्रसंग आयेगा। चेतन स्वरूप भाव इन्द्रिय नेत्र आदि को प्रमाण के प्रति साधकतम मानना अनिष्ट नहीं है, क्योंकि भावेन्द्रियों में कथञ्चित् अर्थ प्रमिति के प्रति साधकतमपना है। आत्मा के उपयोग को स्वार्थ परिच्छित्ति में साधकतमपना है और जैन सिद्धान्त में उपयोग ही भावेन्द्रिय है। हेय पदार्थों के त्याग का ज्ञान कराना, आदि शब्द से उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थों को उपादान समझना और उपेक्षणीय पदार्थों में उपेक्षा (राग द्वेष निवृत्ति) का ज्ञान होने रूप प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न है और एक साथ होने वाला स्वार्थ अज्ञान की निवृत्ति रूप फल प्रमाण से अभिन्न है, इस प्रकार स्याद्वाद का आश्रय लेने पर यह भेद-अभेद की व्यवस्था करना युक्त भी है। अन्यथा (सौगत मतानुसार सर्वथा प्रमाण से फल को अभिन्न और वैशेषिक मतानुसार सर्वथा भिन्न मानना) समुचित नहीं है, अर्थात हानोपादान और उपेक्षा रूप प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित भिन्न और कथञ्चित अभिन्न है। सर्वथा भिन्न या अभिन्न नहीं है, क्योंकि हानादि ज्ञान के भी प्रमाण से कथंचित् अभेदपना दृष्टिगोचर होता है।४२-४३॥ भावार्थ : हान, उपादान और उपेक्षा रूप फलज्ञान कभी ज्ञान के समय ही उत्पन्न होता है- कभी कुछ क्षण के बाद उत्पन्न होता है-परन्तु अज्ञान निवृत्तिरूप फल प्रमाण के समय ही उत्पन्न होता है। हेय को छोड़ना, उपादेय को ग्रहण करना और उपेक्षणीय पदार्थों की उपेक्षा करना, उनमें रागद्वेष नहीं करना प्रमाण का व्यवहित फल है, अर्थात् ये ज्ञान होने के बाद होने वाले हैं और उस विषय के अज्ञान की निवृत्ति हो जाना ज्ञान का अव्यवहित (साक्षात्) फल है, अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति और ज्ञान की उत्पत्ति एक समय में ही (एक साथ ही) होती है इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त