Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 238
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 225 तत्रावभासमानमपि तद्धर्मेध्यारोपयन् कुतश्चिद्विभ्रमादर्थक्रियानिमित्तमिव जनोनुमन्यते परमार्थतस्तस्यासंभवात् / संभवेवाध्यक्षेऽवभासानुषंगात् चित्रसंविदां सकृदपनेतुमशक्तेः / स्वलक्षणस्य वस्तुतोसत्त्वे कस्यायत्ता: सत्त्वादयो धर्मा इति चेत् तेषां परमार्थतोसत्त्वे कस्य स्वलक्षणमाश्रय इति समः पर्यनुयोगः / स्वरूपस्यैवेति चेत् तर्हि धर्माः स्वरूपायत्ता एव संतु स्वलक्षणमनिर्देश्यं स्वस्य परस्य वाश्रयत्वेनान्यथा वा निर्देष्टुमशक्यत्वादिति चेत् तत एव धर्मास्तथा भवंतु विरोधाभावात् / स्याद्वादिनां शुद्धद्रव्यस्येवार्थपर्यायाणामनिर्दिश्यत्वोपगमात् / यथा च व्यंजनपर्यायाणां सदृशपरिणामलक्षणानां निर्देश्यत्वं तैरिष्टं तथा द्रव्यस्याप्यशुद्धस्येति नैकांततः किंचिदनिर्देश्य बुद्धि में प्रतिभासमान स्वलक्षण को निष्ठत्व सम्बन्ध से उसके सत्त्वादि धर्मों में अध्यारोप करता हुआ व्यवहारी जन (संसारी प्राणी) किसी भ्रान्ति से अर्थक्रिया के निमित्त सदृश स्वलक्षण को मान रहा है। परमार्थ से विचार किया जाता है-तब तो स्वलक्षण के अर्थक्रिया के निमित्तत्व की असंभवता ही है, अर्थात् स्तविक धर्मों में असदप स्वलक्षण का आरोप करना असंभव है. यदि स्वलक्षण के अर्थक्रिया की संभवता मानी जायेगी तो प्रत्यक्ष ज्ञान में ही प्रतिभासित होने का प्रसंग आयेगा और ऐसा होने पर धर्म और स्वलक्षण के चित्रसंविद् (अनेक आकार वाले ज्ञानों) का एक बार भी दूरीकरण अशक्य हो जाएगा अर्थात् अस्तित्व आदि धर्मों का खण्डन करने पर या उनको स्वीकार नहीं करने पर स्वलक्षण ज्ञान की भी सिद्धि नहीं हो सकती। - बौद्ध कहता है कि परमार्थ से स्वलक्षण का असत्त्व मानेंगे-(स्वलक्षण का अस्तित्व स्वीकार नहीं करेंगे) तो सत्त्व आदि धर्म किसके आश्रय रहेंगे ? जैनाचार्य इसके उत्तर में कहते हैं कि-अस्ति (सत्त्व) नित्य आदि को परमार्थ से असत्त्व मान लेने पर स्वलक्षण किसके आश्रित रहेगा ? अर्थात् जैसे अग्नि के बिना उष्णता नहीं रहती है, उसी प्रकार उष्णता के बिना अग्नि कैसे रह सकती है-उसी प्रकार स्वलक्षण के बिना सत्त्व आदि धर्म नहीं रहते हैं तो सत्त्वादि धर्म के बिना स्वलक्षण भी कैसे रह सकता है ? इस प्रकार दोनों में प्रश्न सामान्य है। _यदि कहो कि अस्तित्व आदि धर्म के बिना भी स्वलक्षण अपने स्वरूप से रहता है-तो स्वलक्षण के बिना भी सत्त्व आदि धर्म अपने स्वरूप के आधीन रहते हैं, उनको भी स्वलक्षण का आश्रय नहीं चाहिए। ... “यदि बौद्ध कहे कि स्वलक्षण तत्त्व अवाच्य है, निर्विकल्प रूप है अत: स्वाश्रय वा दूसरे के आश्रय से स्वलक्षण तत्त्व का कथन करना अनुपयुक्त है, कथन करना शक्य नहीं है" तो जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो सत्त्वादि धर्मों का भी शब्द के द्वारा कथन नहीं किया जा सकता। इसमें विरोध का अभाव है इस प्रकार सर्व पदार्थ अवक्तव्य हो जाएंगे। - स्याद्वाद सिद्धान्त में शुद्ध द्रव्य के समान सूक्ष्म अर्थ पर्यायों को अनिर्देश्यत्व स्वीकार किया है। सूक्ष्म अर्थ पर्याय को भी शब्द के द्वारा अव्यक्त माना है। जिस प्रकार सदृश परिणति लक्षण वाली व्यञ्जन पर्याय को शब्द के द्वारा वाच्य (कथन करने योग्य) स्वीकार किया है, उसी प्रकार पर द्रव्य के साथ बन्ध को प्राप्त अशुद्ध द्रव्य को भी शब्द के द्वारा वाच्य माना है, अत: एकान्त से द्रव्य वाच्य या अवाच्य नहीं है अपितु स्याद्वाद नय की अपेक्षा कथञ्चित् निर्देश्य (वाच्य) और कथञ्चित् अनिर्देश्य (अवाच्य)

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