________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 197 नयोभ्यर्हितः प्रमाणात् तद्विषयांशे विप्रतिपत्तौ संप्रत्ययहेतुत्वादिति चेन्न, कस्यचित्प्रमाणादेवाशेषवस्तुनिर्णयात्तद्विषयांशे विप्रतिपत्तेरसंभवान्नयात् संप्रत्ययासिद्धेः / कस्यचित् तत्संभवे नयात्संप्रत्ययसिद्धिरिति चेत् , सकले वस्तुनि विप्रतिपत्तौ प्रमाणात् किं न संप्रत्ययसिद्धिः / सोयं सकलवस्तुविप्रतिपत्तिनिराकरणसमर्थात् प्रमाणाद्वस्त्वेकदेशविप्रतिपत्तिनिरसनसमर्थं सन्नयमभ्यर्हितं ब्रुवाणो न न्यायवादी॥ मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोपि वा / ज्ञातस्यार्थस्य नांशेस्ति नयानां वर्तनं ननु // 24 // निःशेषदेशकालार्थागोचरत्वविनिश्चयात् / तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितः / / 25 // न हि मत्यवधिमन:पर्ययाणामन्यतमेनापि प्रमाणेन गृहीतस्यार्थस्यांशे नयाः प्रवर्तते तेषां निःशेषदेशकालार्थगोचरत्वात् मत्यादीनां तदगोचरत्वात् / न हि मनोमतिरप्यशेषविषया करणविषये तज्जातीये वा प्रवृत्तेः॥ “प्रमाण से नय अधिक पूज्य है, क्योंकि उस प्रमाण के विषयभूत वस्तु के विशेष अंशों में विवाद उत्पन्न होने पर नय ज्ञान ही निर्णय कराने का निमित्त होता है।" ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि किसी भी जीव को प्रमाण द्वारा पूर्ण वस्तु का निर्णय हो जाने से उस विषय के विशेष अंश में जब संशयपूर्वक विवाद होना ही असंभव है, तब नय से सम्प्रतिपत्ति होना तो असिद्ध ही है। शंका : किसी-किसी ज्ञाता को विशेष अंश में उस विप्रतिपत्ति (संशय या विवाद) के संभव होने पर नय ज्ञान से प्रतीति (संशय का अभाव) होना देखा जाता है अत: नय पूज्य है। समाधान : यदि ऐसा है तो सम्पूर्ण वस्तु में विवाद हो जाने पर प्रमाण के द्वारा समीचीन निर्णय होना सिद्ध क्यों नहीं माना जाता है? अतः सकल वस्तु के विषय में उत्पन्न हुए समारोप (संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) के निराकरण करने में समर्थ प्रमाण ज्ञान से, वस्तु के एकदेश में उत्पन्न विप्रतिपत्ति निराकरण करने में समर्थ नय ज्ञान को पूज्य कहने वाला न्यायवादी नहीं है, अर्थात् वह न्याय का ज्ञाता नहीं है। शंका : मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ के अंश में नयज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि वे मति आदिक तीन ज्ञान सम्पूर्ण देशकाल के अर्थों को विषय नहीं कर सकते हैं, ऐसा विशेष रूप से निर्णीत है अत: नय ज्ञान ज्ञात अर्थ के एकदेश को जानता है, यह कैसे सिद्ध होता है ? इस प्रकार कोई तर्क पूर्वक कहता है। समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि उसका यह कहना ठीक है क्योंकि हमने वैसा ही स्वीकार किया है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ के एकदेश विषय में नय की प्रवृत्ति नहीं होती है // 24-25 // मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान में से किसी एक प्रमाण के द्वारा गृहीत अर्थ के अंश में नय ज्ञान प्रवृत्त नहीं होते हैं, क्योंकि मति, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान परिमित देश-काल के अर्थ को जानते हैं और नयों का विषय सम्पूर्ण देशकाल गोचर अर्थ है, अतः मति आदि ज्ञान के त्रिकाल विषय अगोचर