________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 205 प्रतीतिक: स्याविरोधादिति चेन्न, कथंचिद्भेदात् / प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणं, निर्व्यापारं तु क्रियोच्यते , स्वातंत्र्येण पुनर्व्याप्रियमाणः कर्तात्मेति निर्णीतप्रायं / तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनार्थं जानातीति कर्तृकरणक्रियाविकल्पः प्रतीतिसिद्ध एव / तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोपि ज्ञानात्मा आत्मात्मानमात्मना जानातीति घटते / सर्वथा कर्तृकरणकर्मक्रियानामभेदानभ्युपगमात् , तासां कर्तृत्वादिशक्तिनिमित्तत्वात् कथंचिदभेदसिद्धेः / ततो ज्ञानं येनात्मनार्थं जानाति तेनैव स्वमिति वदतां स्वात्मनि क्रियाविरोध एव, परिच्छेद्यस्य रूपस्य सर्वथा परिच्छेदकस्वरूपादभिन्नस्योपगतेश्च / कथंचित्तद्भेदवादिनां तु शंका : जो अर्थ की ज्ञानक्रिया करने में, ज्ञान करण है वही ज्ञान क्रिया है। उनमें करण और क्रिया का व्यवहार प्रमाण प्रतीतियों से सिद्ध कैसे हो सकता है, क्योंकि ज्ञानकरण में और ज्ञानक्रिया में परस्पर विरोध है अर्थात् जो करण है वह क्रिया नहीं है और जो क्रिया है वह करण नहीं है ? समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में ज्ञप्ति क्रिया और करण ज्ञान में कथंचित् भेद स्वीकार किया गया है अर्थात् जैसे अग्नि का दाहक परिणाम और दाहक क्रिया कथंचित् भिन्न है, क्योंकि प्रमिति को करने वाला प्रमाता आत्मा वस्तु की ज्ञप्ति करने में प्रकृष्ट उपकारक रूप से व्यापार करने वाले स्वरूप को करण ज्ञान कहते हैं और व्यापार रहित शुद्धज्ञान रूप धातु अर्थ को ज्ञप्ति क्रिया कहते हैं तथा स्वतंत्र व्यापार करने वाला कर्ता कहलाता है। ऐसा बहुत बार निर्णीत कर दिया गया है इसलिए ज्ञान स्वरूप आत्मा ही स्वकीय ज्ञान स्वरूप के द्वारा ज्ञान स्वरूप अपनी आत्मा को और आत्मा से भिन्न जीवादि सारे पदार्थों को जानता है। इस प्रकार कर्ता, करण और क्रिया का विकल्प प्रतीतिसिद्ध ही है। उसी प्रकार ज्ञान में कर्मपना भी (कर्म का व्यवहार भी)। "ज्ञानस्वरूप आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा को स्वकीय ज्ञान के द्वारा जानता है" यह घटित हो जाता है। भावार्थ : प्रमिनोति जानता है, इस कर्तृवाच्य में 'युट्' प्रत्यय करने पर प्रमाण (ज्ञान) कर्तृ साधन हो जाता है। “प्रमीयतेऽनेन इति प्रमाणं" ऐसा कर्मवाच्य में 'युट्' प्रत्यय करने पर प्रमाण करण साधन हो जाता है। "प्रमितिमात्रं प्रमाणं" इस प्रकार भाव में 'युट्' प्रत्यय करने पर प्रमाण का अर्थ ज्ञप्ति क्रिया हो जाती है। ज्ञान पदार्थ में अनेक स्वभाव हैं अत: भिन्न-भिन्न निमित्तों की अपेक्षा ज्ञान के कर्त्तापना, कर्मत्व, और क्रियात्व ये घटित हो जाते हैं। . स्याद्वाद सिद्धान्त में कर्ता, कर्म और क्रिया में सर्वथा भेद स्वीकार नहीं किया गया है। उन कर्ता, कर्म और क्रिया में कर्तादि शक्ति के निमित्त से कथंचित् भेद की सिद्धि है। अथवा एक ही ज्ञान या आत्मा में कर्ता, कर्म और क्रिया का सर्वथा अभेद भी सिद्ध नहीं है, कथंचित् अभेद की सिद्धि है। “इसलिए ज्ञान जिस स्वरूप से जीवादि पदार्थों को जानता है उसी स्वरूप से अपने स्वरूप को भी जानता है" इस प्रकार कहने वाले के स्वात्मा में क्रिया का विरोध अवश्य है क्योंकि इस प्रकार कहने वाले के सिद्धान्त में, जानने योग्य स्वरूप को ज्ञापक स्वरूप कारणों से सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया गया है परन्तु कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद मानने वाले स्याद्वादियों के सिद्धान्त में यह दोष नहीं आ सकता है।