________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 178 इति कस्यचित्प्रतीत्यभावात् / ननु चापि विकल्पः स्पष्टाभोऽनुभूयते नचासौ युक्तस्तस्यास्पष्टावभासित्वेन व्याप्तत्वात् / तदुक्तं / “न विकल्पानुविद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासता” इति / ततोस्य दर्शनाभिभवादेव स्पष्टप्रतिभासोऽन्यथा तदसंभवादिति चेन्न, विकल्पस्यास्पष्टावभासित्वेन व्याप्त्यसिद्धेः / कामाद्युपप्लुतचेतसां कामिन्यादिविकल्पस्य स्पष्टत्वप्रतीते: सोक्षज एव प्रतिभासो न विकल्पज इत्ययुक्तं, निमीलिताक्षस्यान्धकारावृतनयनस्य च तदभावप्रसंगात् भावनातिशयजनितत्वात्तस्य योगिप्रत्यक्षतेत्यसम्भाव्यं, भ्रांतत्वात् / ततो विकल्पस्यैवाक्षजस्य मानसस्य वा कस्यचित्स्पष्टमतिज्ञानावरणक्षयोपशमापेक्षस्याभ्रांतस्य भ्रांतस्य वा निर्बाधप्रतीतिसिद्धत्वादवयविविकल्पस्य स्वतः स्पष्टतोपपत्तेः सिद्धमंशिनः स्पष्टज्ञानवेद्यत्वमंशवत् से उत्पन्न होते हैं अत: अंशी के स्पष्टदर्शन हो जाने से अंशी का वस्तुभूतपना सिद्ध हो जाता है अर्थात् अंश के निर्विकल्पक से अंशी के विकल्पज्ञान का छिपाया जाना देखा जाता है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि अंश के दर्शन से अंशीका विकल्पज्ञान छिपाया गया है इस प्रकार की प्रतीति का अभाव है। शंका : स्याद्वादियों के यहाँ विकल्पज्ञान जो स्पष्ट प्रकाश करता हुआ अनुभव में आ रहा कहा जाता है; किन्तु यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि उस विकल्पज्ञान की अस्पष्ट प्रकाशीपन के साथ व्याप्ति सिद्ध होती है। (यानी जो विकल्पज्ञान है वह अविशद रूप से प्रकाशक है)। हमारे ग्रन्थों में भी कहा है कि कल्पनाओं से अनुविद्ध विकल्प ज्ञान को अर्थ का स्पष्ट प्रकाशपना नहीं है अत: विकल्पज्ञान का निर्विकल्पक से अभिभव हो जाने के कारण ही स्पष्ट प्रतिभास होता है। अन्यथा दर्शन के प्रभाव बिना विकल्प में स्पष्टता का होना असम्भव है। जैन आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि विकल्पज्ञान की अस्पष्ट प्रकाशत्व के साथ व्याप्ति असिद्ध है। बौद्ध कहते हैं कि काम, शोक, भय, उन्मत्तता आदि से घिरे हुए चित्तवाले पुरुष को कामिनी, इष्ट पुत्र, पिशाच, सिंह आदिक पदार्थों के विकल्पज्ञानका स्पष्टपना प्रतीत होता है, वह विकल्प प्रतिभास तो इन्द्रियजन्य ही है, विकल्पजन्य नहीं है। इन्द्रियों से ज्ञान में स्पष्टता आ जाती है। जैन आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना युक्तियों से रहित है। क्योंकि ऐसा माननेपर इन्द्रिय व्यापार को संरुद्ध कर अथवा आँखों को मींच कर विचार करने वाले या गाढ़ान्धकार से ढकी हुई आँखवाले पुरुषको कामिनी आदि में उस विकल्पज्ञान होने के अभाव का प्रसंग आयेगा अर्थात् इन्द्रिय व्यापार के बिना भी कामिनी आदि के ज्ञान में स्पष्टता झलक रही है। ___भावना ज्ञान के चमत्कार उत्पन्न हो जाने के कारण उस कामिनी आदि के ज्ञान को योगिप्रत्यक्षपना मान लेना तो असम्भव है क्योंकि कामपीडित पुरुषों को वियुक्त अवस्था में कामिनी का ज्ञान होना या शोकी पुरुष को मृतक पुत्र का सन्मुख दीखना ये सब भ्रान्त (विपर्ययज्ञान) हैं तथा अतीन्द्रियदर्शी योगी के विपर्ययज्ञान होने की सम्भावना कैसे हो सकेगी ? अत: बहिरंग इन्द्रियों से जन्य अथवा अन्तरंग मन इन्द्रिय से जन्य किसी भी विकल्पज्ञान को स्पष्ट मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा से स्पष्टपना प्राप्त होता है। (स्पष्टपना इन्द्रियों से नहीं आता है किन्तु ज्ञानावरण के स्पष्ट क्षयोपशम से ज्ञान में स्पष्टता मानी गयी है)। चाहे समीचीन ज्ञान हो अथवा भ्रान्तज्ञान हो दोनों में स्पष्टपना अपने कारणरूप क्षयोपशम से ही प्राप्त होता