________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 182 सर्वज्ञानानामनालंबनत्वादिति मतिस्तदा प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रांतमिति वचोऽनर्थकमेव स्यात् कस्यचित्प्रत्यक्षस्याभावात्॥ स्वसंवेदनमेवैकं प्रत्यक्षं यदि तत्त्वतः। सिद्धिरंशांशिरूपस्य चेतनस्य ततो न किम्॥ 11 // यथेंद्रियजस्य बहिःप्रत्यक्षस्य तत्त्वतोऽसद्भावस्तथा मानसस्य योगिज्ञानस्य च स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वात् ततः स्वसंवेदनमेकं प्रत्यक्षमितिचेत् सिद्धं तर्हि चेतनातत्त्वमंशांशिस्वरूपं स्वसंवेदनात्तस्यैव प्रतीयमानत्वात् / न हि सुखनीलाद्याभासांशा एव प्रतीयते स्वशरीरव्यापिन: सुखादिसंवेदनस्य महतोऽनुभवात् नीलाद्याभासस्य चेंद्रनीलादेः प्रचयात्मनः प्रतिभासनात् // विज्ञानप्रचयोप्येष भ्रांतश्चेत् किमविभ्रमम् / स्वसंवेदनमध्यक्षं ज्ञानाणोरप्रवेदनात् // 12 // अनुमान प्रत्यक्ष, योगी प्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, इस प्रकार चार प्रत्यक्ष माने हैं किन्तु ये चारों ही अपने विषयों को जानते हुए आलम्बन सहित हैं। यदि विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध अन्य प्रत्यक्षों को न मानकर केवल स्वसंवेदन को ही वास्तविक रूप से एक प्रत्यक्ष स्वीकार करेंगे, तब तो उस स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अंश और अंशीस्वरूप चेतन आत्मा की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो स्थूल सांश आत्मा को सिद्ध कर देता है॥११॥ बौद्ध कहते हैं कि जैसे पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न बहिरंग प्रत्यक्ष की परमार्थरूप से सत्ता सिद्ध नहीं है, उसी प्रकार अंतरंग मनोजन्य मानस प्रत्यक्ष की और योगियों के अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष की भी स्वरूप मात्र से अवस्थित होने से सत्ता सिद्ध नहीं है ऐसा नहीं है अपितु उनकी सत्ता सिद्ध है क्योंकि कोई भी बहिरंग ज्ञेय पदार्थ वस्तुभूत नहीं है। केवल विज्ञान परमाणु ही परमार्थस्वरूप है। अत: हम योगाचार मत में केवल स्व को जानने वाले एक स्वसंवेदन को ही प्रत्यक्ष मानते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों के कहने पर तो अश और अशी स्वरूप चेतना (ज्ञान) तत्त्व सिद्ध हो जाता है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से धर्म-धर्मी रूप चेतना की ही प्रतीति होती है। अन्तरंग सुख, इच्छा, आदि को और बहिरंग नील, पीत आदि को प्रकाश करने वाले केवल अंश ही प्रतीत नहीं है किन्तु साथ में अपने शरीर में व्यापक रूप से रहने वाले महान् सुख आदि अंशी के संवेदन का भी अनुभव होता है, जैसे इन्द्र नीलमणि, माणिक्य, आदि के अनेक प्रदेशों का समुदाय रूप नील, रक्त, आदि प्रकाशों का प्रतिभास होता है अत: बहिरंग और अन्तरंग पदार्थों के ज्ञानों में अंशीपना भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाना जाता है। यदि बौद्ध कहें कि विज्ञानों का प्रदेश समुदाय रूप महान् प्रकाश भी भ्रान्तरूप है, अर्थात् घट, पट आत्मा आदि पदार्थों का महान्पना जैसे कोरा कल्पित है, वास्तविक नहीं है वैसे ही विज्ञान के प्रकाश का महान्पना भी भ्रान्त है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि कौनसा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाण रूप अभ्रान्तसिद्ध है ? सभी स्वसंवेदन तो अंश अंशीरूप होकर अनुभूत हो रहे हैं। कहीं भी प्रमाण ज्ञान के प्रसिद्ध होने पर दूसरे स्थल में वस्तु के नहीं होने पर भ्रान्तज्ञान माना जाता है, सर्वत्र भ्रान्ति होने पर तो प्रमाण की व्यवस्था नहीं बनती है। बौद्धों के द्वारा स्वीकृत परमाणुओं का ज्ञान तो होता नहीं है। अतः स्वसंवेदन को और उससे जानने योग्य विज्ञान को वस्तुभूत कैसे सिद्ध कर सकेंगे ? // 12 //