________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 39 तत्त्वमित्येकाद्यनंतविकल्पोपायादौ तत्त्वस्य मध्यमस्थानाश्रयमपेक्ष्य विनेयस्य मध्यमाभिधानं सूरेः संक्षेपाभिधानं सुमेधसामेवानुग्रहाद्विस्तराभिधाने चिरेणापि प्रतिपत्तेरयोगात् / सर्वानुग्रहानुपपत्तिरित्येके / ते न सूत्रकाराभिप्रायविदः / सप्तानामेव जीवादीनां पदार्थानां नियमेन मुमुक्षोः श्रद्धेयत्वज्ञापनार्थत्वादुपदेशस्य मध्यमरुचिविनेयानुरोधेन तु संक्षेपेणैकं तत्त्वं प्रपंचतश्चानंतं मा भूत् सूत्रयितव्यं / मध्यमोक्त्या तु व्यादिभेदेन बहुप्रकारं कथनं सूत्रयितव्यं विशेषहेत्वभावात् / सप्तविधतत्त्वोपदेशे तु विशेषहेतुरवश्यं मुमुक्षोः श्रद्धातव्यत्वमभ्यवाप्येत परैः / कथम् ? मोक्षस्तावद्विनेयेन श्रद्धातव्यस्तदर्थिना। बंधश्च नान्यथा तस्य तदर्थित्वं घटामटेत् // 4 // आस्रवोपि च बंधस्य हेतुः श्रद्धीयते न चेत् / क्वाहेतुकस्य बंधस्य क्षयो मोक्षः प्रसिद्ध्यति // 5 // बंधहेतुनिरोधश्च संवरो निर्जरा क्षयः। पूर्वोपात्तस्य बंधस्य मोक्षहेतुस्तदाश्रयः॥ 6 // एक तत्त्व है। जीव अजीव के भेद से दो तत्त्व हैं; अर्थ, शब्द और ज्ञान रूप से तीन तत्त्व हैं- इत्यादि / एक आदि अनन्त विकल्पों के उपाय की आदि में तत्त्व के मध्यम स्थान के आश्रय की अपेक्षा करके शिष्य के लिए आचार्य सूरि का मध्यम रूप से कथन है।क्योंकि यदि अत्यन्त संक्षेप से कथन किया जावे तो सुमेधसों (विद्वज्जनों) को ही प्रतीति हो सकती है और यदि अति विस्तार से निरूपण किया जाये तो चिरकाल तक भी प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। 'शंका : सात तत्त्व का कथन करने से सर्व जीवों का अनुग्रह नहीं होता। समाधान : ऐसा कहने वाले सूत्रकार के अभिप्राय को नहीं जानते हैं। आचार्य कहते हैं :- जीवादि सात तत्त्व के श्रद्धेयत्व का ख्यापन करने के लिए मुमुक्षुओं को मध्यम रुचिवाले शिष्य के अनुरोध से संक्षेप से एक तत्त्व का और विशेष से अनन्त तत्त्व का सूत्र में कथन नहीं करना तो ठीक है, परन्तु मध्यम रीति से दो तीन आदि बहुत प्रकार से तो तत्त्वों का सूत्र में कथन कर सकते थे क्योंकि इसमें विशेष हेतु का अभाव है। फिर भी उमास्वामी ने सात ही तत्त्व कहे हैं। इन सात तत्त्वों के कथन में कोई विशेष हेतु है, क्योंकि मुमुक्षु को वे सात श्रद्धान करने योग्य हैं तथा अन्य प्रवादियों के द्वारा भी मान्य है। शंका : इन सात तत्त्वों के कथन करने का मुख्य हेतु क्या है ? (मध्यम रीति से कहना यह तो मुख्य हेतु नहीं है क्योंकि मध्यम रीति से तो तीन चार तत्त्वों का भी वर्णन कर सकते थे) समाधान : मोक्षार्थी शिष्य को सर्वप्रथम मोक्ष का श्रद्धान तो अवश्य करना चाहिए और बंध का भी, क्योंकि बंध का श्रद्धान किये बिना उसके मोक्ष की अभिलाषा घटित नहीं हो सकती अर्थात् जो जीव वर्तमान में अपने को बँधा हुआ नहीं मानता वह अनन्त सुखवाली मुक्ति का इच्छुक भी नहीं हो सकता है॥४॥ यदि बंध के कारणभूत आस्रव का श्रद्धान नहीं किया जायेगा तो अकारण होने वाले बंध का क्षय रूप मोक्ष कैसे सिद्ध होगा॥५॥ बंध के कारणों का रुक जाना संवर तथा पूर्व काल में एकत्र हुए बंध का क्षय होना निर्जरा ये दोनों मोक्ष के कारण हैं, क्योंकि मोक्ष संवर और निर्जरा के आश्रय से होता है तथा बंध और मोक्ष के द्विष्ठत्व