________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 103 रूपादीनामपि तथानुषंगांभावात् / तस्य विद्यानुकूलत्वाद्भावनाप्रकर्षसात्मीभावे विद्यावभासमर्थकारणता न तु रूपादीनामिति चेत् , रूपादयः कुतो न विद्यानुकूला: ? भेदव्यवहारस्याविद्यात्मन: कारणत्वादिति चेत् , तत एव शब्दोपि विद्यानुकूलो मा भूत् / गुरुणोपदिष्टस्य तस्य रागादिप्रशमहेतुत्वाद्विद्यानुकूलत्वे रूपादीनां तथैव तदस्तु विशेषाभावात् / तेषामनिर्दिश्यत्वान्न गुरूपदिष्टत्वसंभव इति चेत् न, स्वमतविरोधात् / “न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते / अनुविद्धमिवाभाति सर्वं शब्दे प्रतिष्ठितम् // " इति वचनात् / शाब्दः प्रत्ययः सर्वः शब्दान्वितो नान्य इति चायुक्तं, श्रोत्रजशब्दप्रत्ययस्याशब्दान्वितत्वप्रसक्ते: स्वाभिधानविशेषात् असद्भूत शब्द परम ब्रह्म की ज्ञप्ति का उपाय कैसे हो सकता है? यदि असद्भूत शब्द परम ब्रह्म की ज्ञप्ति का उपाय होगा तब तो रूपादिक के भी परम ब्रह्म की ज्ञप्ति के उपाय का प्रसंग आयेगा। शब्दाद्वैत- यद्यपि शब्द ज्योति परम ब्रह्म ज्ञान स्वरूप नहीं है तथापि सम्यग्ज्ञान रूप, विद्या का अनुकूल कारण होने से , तथा ज्ञान की भावना की प्रकर्षता से ब्रह्म के साथ तदात्मक होने से समीचीन ज्ञान के अवभास में समर्थ कारण हो जाता है। . परन्तु रूप रस आदि गुणों के अभेद ज्ञान रूप विद्या के प्रति समर्थ कारणता नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि रूप रस आदि गुण भेद विज्ञान रूप विद्या के अनुकूल क्यों नहीं हैं ? यदि कहो कि अविद्या स्वरूप भेद व्यवहार का कारण होने से रूपादि विद्या के अनुकूल नहीं हैं अपितु प्रतिकूल है, इस प्रकार तो शब्द भी विद्या के अनुकूल नहीं हो सकता क्योंकि शब्द भी घट पट, आदि भेद व्यवहार का कारण है। गुरु के द्वारा उपदिष्ट उस शब्द के रागादिक के प्रशमन का हेतुत्व होने से विद्यानुकूलत्व है ऐसा मानने पर तो उस प्रकार रूपादिक के भी विद्यानुकूलता हो सकती है क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है अर्थात् जिस प्रकार गुरुदेव के द्वारा उपदिष्ट शब्द रागद्वेष के उपशम (शान्त) करने में कारण होते हैं उसी प्रकार गुरु के द्वारा उपदिष्ट रूप रस आदि भी रागादिक के उपशमन में कारण हो सकते हैं; इन दोनों में गुरु उपदिष्ट हेतु में कोई विशेषता नहीं है अतः शब्द के समान रूप आदि भी सम्यग्ज्ञान के अनुकूल हैं। - रूपादिक के अनिर्दिश्यत्व (शब्द का विषय न) होने से गुरु के द्वारा उपदिष्टत्व संभव नहीं है (अर्थात् रूपादिक का गुरु उपदेश नहीं दे सकते क्योंकि वे शब्द के विषय नहीं हैं) ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दाद्वैत वादियों के स्वकीय मत का विरोध आता है। उनके ग्रन्थ में कहा है कि “लोक में कोई भी ऐसा ज्ञान नहीं है जो शब्द के अनुगम (स्पर्श) के बिना होता हो' “सर्व ज्ञान और ज्ञेय पदार्थ शब्द में अनुविद्ध (व्याप्त) हुए के समान अवभासित होते हैं और शब्द में प्रतिष्ठित हैं।" शब्दों के संकेत द्वारा उत्पन्न सभी ज्ञान शब्द से अन्वित हैं परन्तु रूप रस आदि वा उनका ज्ञान शब्द से अन्वित नहीं है, ऐसा भी कहना युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि ऐसा मानने पर श्रोत्रेन्द्रियजन्य शब्द. ज्ञान के शब्द से अन्वित नहीं होने का प्रसंग आता है अर्थात् इन्द्र शब्द सुनकर शचीपति इन्द्र को जान लेना