________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 123 तत्साधनतानुपपत्तेः। स्वसंविदिताकारस्य कल्पिताकारस्य चैकस्य विकल्पज्ञानस्य तथाविधानेकाकारविकल्पोपादानत्वाददोषोयमिति चेत् , नैकस्यानेकाकारस्य वस्तुनः सिद्ध्यनुषंगात् / संविदि कल्पिताकारस्य भ्रांतत्वान्नैकमनेकाकारं विकल्पवेदनमिति चेत् न, भ्रांतेतराकारस्य तदवस्थत्वात् / भ्रांताकारस्यासत्त्वे तदेकं सदसदात्मकमिति कुतो न सत्त्वसिद्धिः। यदि पुनरसदाकारस्याकिंचिद्रूपत्वादेकरूयमेव विकल्पवेदनमिति मतिः, तदा तत्र शब्दः प्रवर्तत इति न क्वचित्प्रवर्तत इत्युक्तं स्यात् / तथोपगमे च विवक्षाजन्मानो हि शब्दास्तामेव गमयेयुरिति रिक्ता वाचोयुक्तिः। गमयेयुरिति संभावनायां लिप्रयोगात्तामपि माजीगमन्न गीर्बहिरर्थवत्सर्वथा निर्विषयत्वेन तेषां व्यवस्थापनादित्यप्यात्मघातिनो वचनं स्वयं ___ बौद्ध कहते हैं कि- एक विकल्प ज्ञान के संविदित आकार और कल्पित आकारों का उपादान कारण उस प्रकार के अनेक आकारों का धारक विकल्प ज्ञान है अर्थात् सविकल्प ज्ञान का उपादान कारण निर्विकल्प ज्ञान नहीं है अपितु स्वसंवेदन और कल्पित पदार्थों के विकल्पों का उत्पादक अनेकाकार धारक विकल्प ज्ञान है इसलिए उक्त दोष (एक उपादान होने से कार्य में भेद कैसे होता है, इत्यादि) हमारे प्रति नहीं आते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का इस प्रकार कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अनेक आकार वाली एक वस्तु की सिद्धि का प्रसंग आयेगा। भावार्थ : स्याद्वाद मत में कथंचित् एक वस्तु अनेक आकार वाली हो सकती है, एकान्तवाद में नहीं। जान में कल्पित अनेक आकार भान्त हैं. अत: एक विकल्प ज्ञान वास्तविक अनेक आकार वाला नहीं है, इस प्रकार का बौद्धों का कथन भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि भ्रान्त आकार और अभ्रान्त आकार ये दो आकार एक विकल्प ज्ञान में वैसे के वैसे अवस्थित हैं अर्थात् एक ही विकल्प ज्ञान में अनेक कल्पित आकारों की अपेक्षा भ्रान्तपना है और स्व का संवेदन अभ्रान्त है, अत: एक ज्ञान में दो आकार सिद्ध हो जाते हैं जो बौद्ध मत का व्याघात और स्याद्वाद को पुष्ट करने वाले हैं। विकल्प ज्ञान में भ्रान्त आकार का असत्त्व स्वीकार करने पर एक ज्ञान सद् -असदात्मक सिद्ध होता है अतः इससे स्याद्वाद दर्शन में कथित अनेक धर्मात्मक सत्त्व की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? अर्थात् अवश्य होगी। यदि पुनः बौद्ध का मन्तव्य हो कि विकल्प ज्ञान के असद् आकार किसी के भी स्वरूप नहीं हैं (अवस्तु वा शून्य हैं) अतः विकल्प ज्ञान एक स्वरूप ही है अनेक रूप वाला नहीं है तब तो कल्पित आकारों में शब्द प्रवृत्ति करता है। इसका अर्थ है शब्द किसी भी वस्तुभूत पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं करता है। क्योंकि बौद्ध मतानुसार शब्द का विषय असद्भूत आकार है। इस प्रकार शब्द किसी भी सद्भूत पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं करता है ऐसा मान लेने पर “विवक्षा से उत्पन्न शब्द विवक्षा का ही ज्ञान कराता है' यह वचनोक्ति (कथन) निष्फल हो जायेगी। 'गमेयुः' यह क्रिया गम्तृ धातु के लिङ्लकार के प्रथम पुरुष सम्बन्धी बहुवचन है। ‘हो भी और नहीं भी हो', ऐसी संभावना अर्थ में लिङ् लकार का प्रयोग होता है अतः शब्द बहिअर्थ के समान वक्ता की इच्छा का गमक नहीं भी हो सकता है, सभी शब्द स्वकीय वाच्य बहिरंग अर्थ से युक्त नहीं हैं क्योंकि 'वाणी' शब्दों का सर्वथा विषयों से रहितपना व्यवस्थापित (निश्चित) किया गया