Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे
विशदीकर्त्तुं यथाशास्त्रं स्वमत्यनुसारं 'तत्त्वार्थ दीपका' विरच्यते तत्र - प्रथमं तावद् वक्ष्यमा - णोत्तराध्ययनसूत्राऽनुसारं जीवादि नव तत्त्वानि प्ररूपयितुमाह
जीवा १ जीव २ बंध ३ पुण्ण ४ पावा ५ Ssसवसंवर ६ णिज्जरा ७ मोबखा ८ नव तताई ९ इति ।
२
जीवः १ अजीवः २ बन्धः ३ पुण्यं ४ पापम् ५ आस्रवः ६ संवरः ७ निर्जरा ८ मोक्षः ९ चेत्येतानि नव तत्त्वानि सन्ति ।
तत्र - जीवस्तावद् उपयोगलक्षण चैतन्यस्वभावो बोधस्वरूपः प्रदीपप्रकाशादिवद् गज - पिपीलिकादिकायाऽनुसारेण संकोच - विकासशाली सस्थावरादिरुच्यते । १
अजीवः खलु चैतन्यरहितः अबोध स्वरूपो धर्मास्तिकायादि रुच्यते । २
बन्धस्तु———जीव-कर्मणो र्जतुकाष्ठवत् संश्लेषः कर्मवर्गणारूपपुद्गलादानरूपः । ३ पुण्यंशुभकर्म पुनात्यात्मानमिति पुण्यम् |४| पापम् - अशुभकर्म पातयति दुर्गता वात्मानमिति पापम्गये विषयों का सुभग रूप से वर्णन किया है । इस प्रकार जैनागमों के समन्वय रूप इस तत्त्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया गया है ।
इस तत्त्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थ के आशय को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रों के अनुकूल, अपनी मति के अनुसार तत्त्वार्थदीपिका नामक टीका की रचना करता हूँ ।
प्रथम उत्तराध्ययन एवं स्थानांग सूत्र के अनुसार प्राकृत ग्रंथ में कहे जाने वाले नव तत्त्वों का निर्देश करते हैं
(१) जीव (२) अजीव (३) बन्ध (४) पुण्य (५) पाप (६) आस्त्रव (७) संवर (८) निर्जरा और (९) मोक्ष, ये नव तत्त्व हैं ।
(१) जीव उपयोग लक्षण चैतन्य स्वभाव बोध स्वरूप एवं ज्ञानमय है । जैसे दीपक का प्रकाश संकोच-विस्तारमय होता है-छोटी जगह में भी समा जाता है और विस्तृत क्षेत्र में भी फैल जाता है, उसी प्रकार जीव जब पिपीलिका (कीड़ी) के पर्याय में उत्पन्न होता है तो उसके छोटे-से शरीरमें समा जाता है और हाथी के पर्याय में उत्पन्न होता है तो विस्तृत होकर उसके शरीर को व्याप्त करके रहता है। ऐसे त्रस और स्थावर आदि प्राणियों कों जीव कहते हैं । (२) चैतन्य से रहित, अज्ञान स्वरूप (ज्ञानशून्य) धर्मास्तिकाय आदि अजीवतत्त्व है । (३) लाख और लकड़ी के समान या दूध और पानी के समान जीव और कर्मपुद्गलों का एकमेक हो जाना अर्थात् कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का आदान बन्ध कहलाता है ।
( ४ ) शुभ कर्म पुण्य कहलाता है । पुण्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - जो आत्मा को पुनीत - पवित्र करे सो पुण्य है ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧