Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रस्तावना ::१ अब हम सूक्ष्मरीति से चिन्तन-मनन-विचार करते हैं। मनुष्य पर्याय की महानता क्यों हैं? संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य जाति का प्राणी ही एक ऐसा प्राणी है जो संसार की चर-अचर, जड़-चेतना आदि समस्त वस्तु-पदार्थों का मूल्य, उनकी उपयोगिता समझता है। परमाणु से लेकर परमात्मा और पशु से लेकर महात्मा, इन सबका मूल्यांकन करनेवाला मनुष्य ही होता है। बस, इसी क्रम में भूल इतनी-सी है कि जो मनुष्य इन सबकी कीमत-मूल्य रखता है, वह स्वयं में अपनी यथार्थ कीमत भूला हुआ है। यदि यह मनुष्य अपनी कुछ कीमत करता भी है तो सांसारिक, तुच्छ, भौतिक, विनाशीक सुख-साधनों से अपनी कीमत जोड़कर अपनी अमूल्यता को व्यर्थ कर देता है। कुछ आत्मप्रवादी मात्र आत्मा के श्रद्धान-गुणानुवाद को ही श्रेष्ठ मानकर मनुष्य पर्याय का विपर्यास करते हैं, मनुष्य देह को आत्म-साधना में व्यर्थ समझते हैं। वे कहते हैं कि अनुभव में मात्र चैतन्य आना इतना ही श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन होता है। इसके समाधान में तो इतना ही कहना है कि विश्व में आत्मा का श्रद्धान (अस्तित्व) तो नास्तिक के अतिरिक्त सभी धर्म (मत) वाले मानते हैं, अतः सभी आत्मार्थी सम्यक्त्वी सिद्ध हो जावेंगे, अतः सर्वज्ञ की वाणी में जैसा आत्मा का पूर्ण स्वरूप कहा है वैसा श्रद्धान होने से निश्चय सम्यक्त्व होता है।' इतने पर भी यदि कोई कहता है कि आत्मा की महिमा गाना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि आत्मा को ही मोक्ष जाना है, इस शरीर को नहीं, अतः इसमें मनुष्य जीवन का कोई मूल्य नहीं है। यदि आत्मा के मोक्ष जाने में मनुष्य पर्याय का कोई महत्त्व नहीं है तब तो आत्मा को निगोद पर्याय से ही मोक्ष चला जाना चाहिए, क्योंकि निगोद जीव के सबसे कम कर्मों की प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग हैं, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर बोधिदुर्लभ भावना का ही महत्त्व नहीं रहेगा, जिसमें जीव की दुर्लभ पर्यायों का कथन किया गया है। मात्र निगोद एवं मोक्ष ये दो ही पर्यायें नियत हो जाएँगी। मोक्ष जाने के लिए निगोद जाना होगा, परन्तु ऐसा है नहीं। जिस प्रकार मिट्टी, ताँबा, पीतल, लोहा, चाँदी, सोने के पात्र, बर्तन की अपेक्षा सामान्य हैं फिर भी सिंहनी का दध स्वर्णपात्र में ही ठहरता है. यदि स्वर्णपात्र के अलावा अन्य किसी पात्र में सिंहनी का दूध दहा जाता है तो वह पात्र ही फट जाता है। उसी प्रकार केवलज्ञान की शक्ति, मोक्ष दिलाने की पात्रता इस मनुष्य देह में ही है, अन्य किसी भी देह में यह पात्रता नहीं है। यदि तत्त्वज्ञान की चर्चा मात्र से ही मोक्ष मिल सकता है तो सर्वार्थसिद्धि के देवों के विमान से सिद्ध शिला मात्र बारह योजन की दूरी पर है, वहाँ के अहमिन्द्र देव तेतीस सागर प्रमाण काल तक तत्त्वज्ञान की चर्चा करते रहते हैं, वहीं से उन्हें मोक्ष हो जाना चाहिए, लेकिन सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्रों को भी मनुष्य पर्याय की अमूल्यता का ज्ञान होता है। तप कल्याणक के दिन सौधर्मेन्द्र भी मनुष्यों को अपना इन्द्रत्व भेंटकर तीर्थंकर भगवान की पालकी उठाने के लिए विह्वल हो उठता है। "नर काया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्राणी।" जहाँ एक ओर मनुष्य देह को अमूल्य रत्न, देवदुर्लभ पर्याय आदि कहा है, वहीं दूसरी ओर इस मनुष्य देह को अशुचि, अपवित्र, वीभत्स, निन्दित, घिनावनी, मल-मूत्र की पिटारी आदि कुत्सित शब्दों द्वारा सम्बोधित किया गया है। 7. स.सार., प्र.अ.,मं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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