Book Title: Tattvartha Sara Author(s): Amitsagar Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ प्रस्तावना ::7 जिस पर है कि यह चने का दाना भाड़ से उचटकर बाहर कैसे आया? कौन-सा निमित्त है? कौन-सी पात्रता उस चने को भाड़ से बाहर निकालने में सहायक होती है? जब चनों को भाड़ में दूंजते हैं तब उसके पहले उन चनों को पानी में भिंगोकर फुलाते हैं, पुनः भाड़ में पूंजते हैं। भाड़ में पूंजते समय भट्टी की गर्मी से गीले चनों के दानों में वाष्प का निर्माण होता है। जिस चने के दाने में एक निश्चित अनुपात में वाष्प बन जाती है वह वाष्प विस्फोट करती है। यदि वह चने का दाना भाड़ में नीचे की तरफ हो तो वहीं फूटकर नीचे ही रह जाता है, लेकिन भाड़ की ऊपर की सतह पर हो तब विस्फोट के कारण भाड़ से उचटकर बाहर निकल आता है। ठीक इसी प्रकार से नित्यनिगोदिया जीव, निगोद से निकलकर व्यवहार राशि में आते हैं। इस प्रक्रिया में नित्यनिगोद से निकलनेवाले जीव का कारण 'जघन्य कापोत लेश्या के आठ मध्यम अंश के परिणाम कहे हैं, क्योंकि नित्य निगोदिया जीवों की जघन्य कापोत लेश्या होती है और उसमें भी उस लेश्या के असंख्यात परिणाम होते हैं। "कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्ति लेश्या"जैसे-गर्मी और पानी के संयोग से वाष्प बनती है वैसे ही कषाय से प्रभावित होकर योगों में जो परिवर्तन आता है उसे लेश्या कहा जाता है। जिस प्रकार से भाड़ के चने को भाड़ से बाहर उचटाने में वाष्प कारण है उसी प्रकार जघन्य कापोत लेश्या के महत्त्वपूर्ण आठ मध्यम अंश इस जीव को नित्यनिगोद से बाहर निकालने तथा व्यवहार राशि में लाने के लिए कारण हैं। अत: इस जीव का नित्यनिगोद से व्यवहार राशि में आना अत्यन्त कठिन है। एक निगोदशरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थावर जीवों से सम्पूर्ण लोक भरा हुआ है। अत: इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता (हीरा) की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ है। उसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता का गुण प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है, इसलिए जिस प्रकार चौपथ पर रत्नराशि का प्राप्त होना अतिकठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना भी अतिकठिन है, और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जाने पर, पुनः उसकी उत्पत्ति होना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्ष के पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्यायरूप से उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जावे तो देश, कुल, इन्द्रियसम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न हो तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य-जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अतिकठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषय-सुख में रमना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है। इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है। ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है। इस प्रकार का विचार करनेवाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी भी प्रमाद नहीं होता है। जिस प्रकार नित्यनिगोद से निकलकर यह जीव अत्यन्त कठिनता से त्रसादि पर्यायों को प्राप्त कर मनुष्य 3. ध. पु. 2/1,1/422/6 4. सर्वा. सि., वृ. 265 5. सर्वा. सि., वृ. 8091 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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