Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ 8 :: तत्त्वार्थसार पर्याय की पूर्णता को प्राप्त करता है उसी प्रकार हमारा तो सोचना यह है कि उससे भी अधिक कठिन इन सबकी प्राप्ति की दुर्लभता का श्रद्धान-ज्ञान का होना है कि हमें यह मनुष्य पर्याय कितनी कठिनता, दुर्लभता से मिली है, इसलिए इस भावना का नाम बोधिदुर्लभ भावना रखा गया है। ____ विश्व के हर मजहब, संस्कृति, धर्म-सम्प्रदाय में इस मनुष्य पर्याय की महिमा का महत्त्व बताया गया है। मानव-देह को अमूल्य-रत्न की उपाधि से मण्डित किया गया है : "नर तन रतन अमोल इसे पानी में मत डालो।" "बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रन्थनि गावा।" यहाँ तक कि अध्यात्म की चर्चा करनेवाले भी इस मनुष्य देह की महिमा का वर्णन करते हैं : "बहु पुण्य पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला। तो भी अरे! भवचक्र का फेरा न एक कभी टला।"6 ईश्वर को सृष्टिकर्ता माननेवाले ईश्वरवादी भी मनुष्य को ईश्वर की अमूल्य-अनुपम कृति मानते हैं। अतः यह तो सर्वसम्मत, सत्य एवं निर्विवाद सिद्ध है कि मनुष्य-जीवन अत्यन्त दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है। क्या हम सबने कभी इस बात पर दृष्टिपात किया कि आखिर चौरासी लाख योनियों में से मनुष्य योनि का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ क्यों है? प्रथम, कोई कहता है कि मनुष्य जीवन में धन-वैभव, वस्त्रालंकार, भोग-उपभोग आदि के द्वारा आनन्दसुख की अनुभूति होती है अथवा “खाओ-पीओ मौज करो", इस संसार में हम इन्द्रिय सुख भोगने के लिए ही जन्मे हैं। भौतिक सुखों से ही मनुष्य-जीवन का मूल्य है, इसी से मनुष्य जीवन की महानता है। __ द्वितीय, कोई कहता है कि मनुष्य-जीवन से मात्र दान-पूजा, व्रत-तप, प्रार्थना-ईशाराधना कर देवत्व पदवी या कुछ लौकिक-अलौकिक शक्तियों का संग्रह किया जा सकता है, अतः मनुष्य-जीवन श्रेष्ठ है। ___ तृतीय, कोई कहता है कि इस मनुष्य भव से मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः यह मनुष्य जन्म कीमती है, श्रेष्ठ है, उत्तम है। प्रथम कथन के समाधान में हम सबका यह प्रश्न है कि आज तक कोई मनुष्य इस संसार में धन-वैभव आदि के आनन्द से कभी तृप्त हुआ है क्या? "मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की"। भोगों की आनन्दआकांक्षाओं ने अनेक रोग-शोक-रोष एवं विसंवादों को ही जन्म दिया है, अत: अनेक महापुरुष इस धन-वैभव के स्वरूप को अच्छी तरह जान-समझकर वैरागी हुए हैं। अतः इस धन-वैभव आदि से मनुष्य जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। द्वितीय धारणा से भी यह प्रश्न उठता है कि मनुष्य पर्याय से मात्र देव पदवी की साधना करना कौनसी महानता है? क्योंकि स्वर्गों के देव भी पुनः इस मनुष्य जन्म की कामना करते हैं, अतः देव पदवी, स्वर्गों की चाह भी, मनुष्य के लिए आधी-अधूरी है। तृतीय अवधारणानुसार जो कोई यह कहता है कि मनुष्य भव से मोक्ष की प्राप्ति होती है, तब हर कोई व्यक्ति मोक्ष पद का अभिलाषी क्यों नहीं है? तब मनुष्य भव का महत्त्व, उसकी महानता किस प्रकार सिद्ध हो सकती है? 6. अमूल्यतत्त्वविचार : श्रीमद् राजचन्द्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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