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प्रथम संस्करण से
(सम्पादकीय)
परम पूज्य श्री १०८ मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज के द्वारा संस्कृत भाषा में निर्मित यह सुदर्शनोदय काव्य पाठकों के कर कमलों में उपस्थित है। ब्रह्मचर्य एवं शीलव्रत में अनुपम प्रसिद्धि को प्राप्त सुदर्शन सेठ का चरित इसमें वर्णन किया गया है। अभी तक इनके चरित का वर्णन करने वाले जितने भी ग्रन्थ या कथानक मिले हैं, उन सब में काव्य की दृष्टि से इस सुदर्शनोदय का विशेष महत्त्व है, इस बात को पाठकगण इसे पढ़ते हुए स्वयं ही अनुभव करेंगे। संस्कृत वाङ्मय में जैन एवं जैनेतर विद्वानों के द्वारा जितने भी काव्य-ग्रन्थ रचे गये हैं, उनमें भी प्रस्तुत सुदर्शनोदय की रचना के समान अन्य रचनाएं बहुत ही कम द्दष्टिगोचर होती हैं। संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध छन्दों में रचना करना बहुत बड़े पाण्डित्य का कार्य है, उसमें भी हिन्दी भाषा के अनेक प्रसिद्ध छन्दों में एवं प्रचलित राग-रागणियों में तो संस्कृत काव्य की रचना करना और भी महान् पाण्डित्य की अपेक्षा रखता है। हम देखते हैं कि मुनिश्री को अपने इस अनुपम प्रयास में पूर्ण सफलता मिली है और उनकी प्रस्तुत रचना से संस्कृत वाङ्मय की
और भी अधिक श्रीवृद्धि हुई है। जहां तक मेरी जानकारी है, इधर पांच सौ वर्षों के भीतर ऐसी सुन्दर एवं उत्कृष्ट काव्य-रचना करने वाला अन्य कोई विद्वान् जैन सम्प्रदाय में नहीं हुआ है। ऐसी अनुपम रचना के लिए जैन सम्प्रदाय ही नहीं, सारा भारतीय विद्वत्समाज मुनिश्री का आभारी है।
मूल ग्रन्थ के मुद्रित फार्म हमने कुछ विशिष्ट विद्वानों के पास प्रस्तावना लिखने और अपना अभिप्राय प्रकट करने के लिए भेजे थे। हमें हर्ष है कि उनमें से काशी के दो विद्वानों ने हमारे निवेदन पर अपना अभिप्राय लिखकर भेजा है। उनमें प्रथम विद्वान् हैं- श्रीमान पं. गोविन्द नरहरि वैजापुरकर, एम. ए., न्याय वेदान्त-साहित्याचार्य। आप काशी के श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में संस्कृताध्यापक और श्री भारत धर्म महामण्डल के प्रमुख संस्कृत पत्र 'सूर्योदय' के सम्पादक हैं। आपने संस्कृत में अपना अभिप्राय लिखकर भेजा है, जो कि 'आमुख' शीर्षक से प्रस्तावना के पूर्व हिन्दी अनुवाद के साथ दिया जा रहा है। दूसरे विद्वान् हैं - वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के जैन दर्शनाध्यापक श्रीमान् पं. अमृतलाल जी साहित्याचार्य। आपने काव्य को कसौटी पर कसते हुए प्रस्तुत काव्य की मीमांसा लिखकर भेजी है, जो कि आगे 'काव्यकसौटी' शीर्षक से दी जा रही है, जिसमें आपने मूल ग्रन्थ को शत-प्रतिशत शुद्ध सत्काव्य बतलाया है । हम उक्त दोनों ही महानुभावों के अत्यन्त आभारी हैं, जिन्होंने हमारी प्रार्थना पर समय निकाल कर अपने अभिमत लिखकर भेजे।
सुदर्शनोदयकार को अन्त्य अनुप्रास रखने के लिए कितने ही स्थलों पर अनेक कठिन और अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग करना पड़ा है। जैसे-प्रथम सर्ग के सातवें श्लोक में 'गण्ड' शब्दके साथ समानता रखने के लिए 'पण्ड' शब्द का प्रयोग किया है. बहुत कम ही विद्वानों को ज्ञात होगा कि 'पण्ड' शब्द नपुंसकार्थक
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