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एक बार वह गाय-भैंसों को लेकर जंगल में गया हुआ था कि वे गंगा-पार किसी हरे भरे खेतमें चरने को निकल गईं । यह गुवाला उन्हें वापिस लाने के लिए उक्त मंत्र को बोलकर ज्यों ही गंगा में कूदा कि पानी के भीतर पड़े हुए किसी नुकीले काठ से टकरा जाने से उसकी मृत्यु हो गई और वह ऋषभदास सेठ की सेठानी के गर्भ में आ गया। जन्म होने पर इसका नाम सुदर्शन रखा गया। उसे सर्व विद्याओं और कलाओं में निपुण बनाया गया।
इसी चम्पानगरी में एक सागरदत्त सेठ रहते थे। उनके मनोरमा नाम की एक सर्वाङ्ग सुन्दरी लड़की थी। समयानुसार दोनों का विवाह हो गया और सुदर्शन के पिता ने जिनदीक्षा ले ली। इधर सुदर्शन के दिन आनन्द से व्यतीत होने लगे। एक बार राजपुरोहित कपिल ब्राह्मण की स्त्री कपिला ने राजमार्ग से जाते हुए सुदर्शन को देखा और उनके अपूर्व सौन्दर्य पर मोहित हो गई। दूती के द्वारा पति की बीमारी के बहाने से उसके मकान के भीतर सुदर्शन को बुलवाया और उनका हाथ पकड़ कर अपनी काम-वासना को पूर्ण करने के लिए कहा। तब चतुर सुदर्शन ने अपने को 'नपुंसक' बता कर उससे छुटकारा पाया।
एक बार वसन्त ऋतु में वन-क्रीड़ा के लिए नगर के सब लोग गये। राजा के पीछे रानी अभया भी अपनी धाय और पुरोहितानी कपिला के साथ जा रही थी। मार्ग में एक सुन्दर बालक को गोद में लिए एक अति सुन्दर स्त्री को जाते हुए कपिला ने देखा और रानी से पूछा - 'यह किसकी स्त्री है?' रानी ने बतलाया कि यह नगर सेठ सुदर्शन की पत्नी मनोरमा है। कपिला तिरस्कार के साथ बोली'कहीं नपुंसक के भी पुत्र होते हैं?' तब कपिला ने सारी आप बीती कहानी रानी को सुना दी। सुनकर हंसते हुए रानी ने कहा- अरी कपिले, सेठ ने तुझे ठग लिया है। तुझसे अपना पिंड छुड़ाने के लिए उसने अपने को नपुंसक बता दिया, सो तू सच समझ गई? तब कपिला अपनी झेंप मिटाती हुई बोलीयदि ऐसी बात है तो आप ही सेठ को अपने वश में करके अपनी चतुराई का परिचय देवें। कपिला की बातों का रानी पर रंग चढ़ गया और वह मन ही मन सुदर्शन को अपने जाल में फंसाने की सोचने लगी।
उद्यान से घर वापिस आने पर रानी ने अपना अभिप्राय अपनी पंडिता धाय से कहा। उसने रानी को बहुत समझाया, पर उसकी समझ में कुछ न आया। निदान पंडिता धाय ने कुम्हार से सात मिट्टी के पुतले बनवाये-जो कि आकार-प्रकार में ठीक सुदर्शन के समान थे। रात में उसे वस्त्र से ढक कर वह राज भवन में घुसने लगी। द्वारपाल ने उसे नहीं जाने दिया। धाय जबरन घुसने लगी तो द्वारपाल का धक्का पाकर उसने पुतले को पृथ्वी पर पटक दिया और रोना-धोना मचा दिया कि हाय अब महारानीजी बिना पुतले के दर्शन किये पारणा कैसे करेंगी? उसकी बात सुनकर द्वारपाल डर गया और बोला-पंडिते, आज तू मुझे क्षमा कर, मुझ से भूल हो गई है। आगे से ऐसी भूल नहीं होगी। इस प्रकार वह पंडिता धाय प्रति-दिन एक-एक पुतला बिना-रोक-टोक के राज भवन में लातीरही। आठवें दिन अष्टमी का प्रोषधोपवास ग्रहण कर सुदर्शन सेठ श्मशान में सदा की भांति कायोत्सर्ग धारण कर प्रतिमायोग से अवस्थित थे। पंडिता दासी ने आधी रात में वहां जाकर उन्हें अपनी पीठ पर लाद कर और ऊपर से वस्त्र ढक कर रानी के महल में पहुंचा दिया। रात भर रानी ने सुदर्शन को डिगाने के लिए अनेक प्रयत्न किये,
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