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मदीयं मासलं देह दृष्टवेयं मोहमागता। दुरन्तदुरितेनाहो चेतनास्याः समावृता।।
(सुदर्श. स. ७. श्लो. २२) मदीयं मांसलं मांसममीमांसेयमङ्गना। पश्यन्ती पारवश्यान्धा ततो याम्यात्मनेऽथवा।।
(क्षत्रचूडामणि, लम्ब ७ श्लो. ४०) __ इस तीसरी तुलना के प्रकरण को देखते हुए यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि सुदर्शनोदयकार पर क्षत्रचूड़ामणि के उक्त प्रकरण का प्रभाव है।
एक विचारणीय बात
सुदर्शनोदय में वर्णित प्रसंगों को गहराई से देखने पर एक स्थल ऐसा दिखाई देता है, जो कि विद्वानों के लिए विचारणीय है। नवें सर्ग में देवदत्ता वेश्या के द्वारा सुदर्शन मुनिराज को पड़िगाह कर
और मकान के भीतर ले जाकर उनसे अपना अभिप्राय प्रकट करने का वर्णन आया है। उस वेश्या के वचनों को सुनकर और आये हुए संकट को देखकर उसे दूर करने के लिए सुदर्शन मुनिराज के द्वारा वेश्या को सम्बोधित करते हुए संसार, शरीर और विषय-भोगों की असारता, अशुचिता और अस्थिरता का उपदेश दिलाया गया है। साधारण दशा में यह उपदेश उपयुक्त था। किन्तु गोचरी को निकले हुए साधु तो गोचरी सम्पन्न हुए बिना बोलते नहीं हैं, मौन से रहते हैं, फिर यहां पर ग्रन्थकार ने कैसे सुदर्शन के द्वारा उपदेश दिलाया? आ. हरिषेण, नयनन्दि आदि ने भी साधु की गोचरी-सम्बन्धी मौन रखने की परिपाटी का पालन किया है और आये हुए उपसर्ग को देखकर सुदर्शन के मौन रखने का ही वर्णन किया है। यह आशंका प्रत्येक विद्वान पाठक को उत्पन्न होगी। जहां तक मैं समझता हूँ, सुदर्शनोदयकार ने पूर्व परम्परा के छोड़ने की दृष्टि से ऐसा वर्णन नहीं किया है, गोचरी को जाते हुए साधु की मर्यादा से वे स्वयं भली भांति परिचित हैं। फिर भी उनके ऐसा वर्णन करने का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि वेश्या के द्वारा अपना अभिप्राय प्रकट करते ही सुदर्शन मुनिराज अपने साथ किये छल को समझ गये और उन्होंने गोचरी करने का परित्याग कर उसे सम्बोधन करना उचित समझा, जिससे कि यह संसार, देह और भोगों की असलियत को समझ कर उनसे विरक्त हो जाय। पर सुदर्शन मुनिराज के इस उपेदश का उस पर कोई असर नहीं हुआ और उसने उन्हें अपनी शय्या पर हठात् पटक लिया
और लगातार तीन दिन तक उसने अपने सभी अमोघ कामास्त्रों का उन पर प्रयोग किया। पर मेरु के समान अचल सुदर्शन पर जब उसके सभी प्रयोग असफल रहे, तब अन्त में वह अपनी असफलता को स्वीकार कर उनका गुण-गान करती हुई प्रशंसा करती है, उनके चरणों में गिरती है, अपने दुष्कृत्यों के लिए निन्दा करती हुई क्षमायाचना करती है और उपदेश देने के लिए प्रार्थना करती है। सुदर्शन मुनिराज उसकी यथार्थता को देखकर उसे पुनः उपदेश देते हैं और अन्त में उन्हें सफलता मिलती है। फलस्वरुप
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