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_ 64 ... उपकार क्यों न करना चाहिए ? ऐसा विचार कर वह सारी रात उनकी शीत-बाधा को दूर करने के लिए उनके आगे आग जलाता हुआ बैठा रहा ॥२४॥
प्रातः समापितसमाधिरिहानगार धुर्यो नमोऽर्हत इतीदमदादुदारः । यत्सूक्तिपूर्वकमुपात्तविधेयवादः। व्यत्येति जीवनमथ स्म लसत्प्रसादः ॥२५॥
प्रातः काल जब अनगार धुरीण (यदि-शिरोमणि) उन मुनिराज ने अपनी समाधि समाप्त की और सामने आग जलाते हुए उस गुवाल बालक को देखा, तो उसे निकट भव्य समझकर उदारमना उन मुनिराज ने उसके लिए 'नमोऽर्हते' (णमो अरिहताणं) इस महामंत्र को दिया और कहा कि इस मंत्र के स्मरणपूर्वक ही प्रत्येक कार्य को करना । वह बालक सविनय मन्त्र ग्रहण कर और मुनिराज की वन्दना करके अपने घर चला आया और प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ मे उक्त महामंत्र का उच्चारण करता हुआ आनन्द पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगा ॥२५॥
महिषीमेक दोद्धर्तु सरस्येति स्म कूदितः । काष्ठ सङ्घाततो मृत्यु मन्त्रस्मरणपूर्वकम् ॥२६॥ महामन्त्रप्रभावेणोत्पन्नोऽसि त्वं महामनाः। एतस्माद्भवतो मुक्तिं यास्यसीति विनिस्चिनु ॥२७॥
(युग्मम्) एक दिन जब वह गाय-भैंसों को चराने के लिए जंगल में गया हुआ था, तब एक भैंस किसी सरोवर में घुस गई। उसे निकालने के लिए ज्यों ही वह उक्त मन्त्र स्मरण पूर्वक सरोवर में कूदा, त्योंही पानी के भीतर पड़े हुए किसी तीक्ष्ण काष्ठ के आघात से वह तत्काल मर गया और उस महामंत्र के प्रभाव से हे सौभाग्य-शालिन् वृषभदास सेठ के तुम महामना पुत्र उत्पन्न हुए हो । (यद्यपि आज तुम्हें वैराग्य नहीं हो रहा है, तथापि) तुम इसी भव से मोक्ष को जाओगे, यह निश्चित समझो ॥२६-२७॥
भिल्लिनी तस्य भिल्लस्य मृत्वा रक्ताक्षिकाऽभवत् । ततश्च रजकी जाताऽमुष्मिन्नेव महापुरे ॥२८॥ तत्रास्याः पुण्ययोगेनाप्यार्यिकासंघसङ्गामात् । बभूव क्षुल्लिकात्वेन परिमामः सुखावहः ॥२९॥
(युग्मम्) उस भील की भीलनी मरकर भैंस हुई। पुनः वह भैंस मरकर इसी ही महान् नगर में धोबी की लड़की हुई। वहां पर उसके योग से उसका आर्यिकाओं के संघ के साथ समागम हो गया, जिसका परिणाम बड़ा सुखकर हुआ, वह धोबिन क्षुल्लिका बन गई ॥२८-२९।
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