Book Title: Sudarshanodaya Mahakavya
Author(s): Bhuramal Shastri, Hiralal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 131
________________ - 112 और महाराज, आपने जो मुझे इस राज्य को ग्रहण करने के लिए कहा है, सो इस पृथ्वी को पूर्वकाल में अन्य अनेकों राजाओं ने अंगीकार कियाहै, अर्थात भोगा है और इस समय आप इसको भोग रहे हैं, इसलिए स्वदार सन्तोष व्रत के धारण करने वाले मेरे यह भोगने-योग्य नहीं है । अब तो निर्वृति (मुक्ति) ही मेरे योग्य है ॥२२॥ इत्युपेक्षितसंसारो विनिवेद्य महीपतिम् । जगाम धाम किञ्चासौ निवेदयितुमङ्गनाम् ॥२३॥ इस प्रकार राजा से अपना अभिप्राय निवेदन कर संसार से उदासीन हुआ वह सुदर्शन अपना अभिप्राय अपनी जीवन-संगिनी मनोरमा से कहने के लिए अपने घर गया ॥२३॥ माया महतीयं मोहिनी भवभाजोऽहो माया ॥स्थायी। भवति प्रकृति समीक्षणीया यद्वशगस्य सदाया। निष्फललतेव विचाररहिता स्वल्पपल्लवच्छाया।। दुरितसमारम्भप्राया॥ माया महतीयं०॥१॥ यामवाप्य पुरुषोत्तमः स्म संशेतेऽप्यहिशय्याम्। कृतकं सभयं सततमिङ्गितं यस्य बभूव धरायाम् ॥ इह सत्याशंसा पायात् ॥ माया महतीयं० ॥२॥ उमामवाप्य महादेवोऽपि च गत्वाऽपत्रपतायाम् । किमिह पुनर्न बभूव विषादी स्थानं पशुपतितायाः।। प्रकृ तविभूतित्वोपायात् ॥ माया महतीयं ॥३॥ अपवर्गस्य विरोधकारिणी जनिभूराकु लतायाः । जड़ धीश्वरनन्दिनी प्रसिद्धा कमलवासिनी वा या।। प्रतिनिषेधिनी सत्तायाः ॥ माया महतीयं ॥४॥ मार्ग में जाते हुए सुदर्शन विचारने लगा - अहो यह जगत् की मोहिनी माया संसारी जीवों को बहुत बड़ी निधि सी प्रतीत होती है? जो पुरुष इस मोहिनी माया के वश को प्राप्त हो जाता है, उसी की प्रकृति बड़ी विचारणीय बन जाती है। जैसे पाला-पड़ी हुई लता फल रहित, पक्षी संचार- विहीन और अल्प पत्र वा अल्प छायावाली हो जाती है, उसी प्रकार मोहिनी माया के जाल में पड़े हुए प्राणी की प्रवृत्ति भी निष्फल, विचार-शून्य, स्वल्प सुकृतवाली एवं पाप बहुल समारम्भ वाली हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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