Book Title: Sudarshanodaya Mahakavya
Author(s): Bhuramal Shastri, Hiralal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 146
________________ 127 मारयित्वा मनो नित्यं निगृह्णन्तीन्द्रियाणि . च। बाह्याडम्बरतोऽतीतास्ते नरा योगिनो मताः ॥४३॥ जो पुरुष अपने चंचल मन का नियंत्रण कर इन्द्रियों का निग्रह करते हैं और बाहिरी आडम्बर से रहित रहते हैं, वे ही पुरुष योगी कहलाते हैं ॥४३॥ ये बाह्यवस्तुषु सुखं प्रतिपादयन्ति, तेऽर्हता वपुषि चात्मधियं श्रयन्ति । हिंसामृषाऽन्यधनदारपरिग्रहेषु, सक्ताः सुरापलपरा निपतन्त्यके षु ॥४४॥ जो लोग बाहिरी वस्तुओं में सुख बतलाते हैं और इन्द्रिय-विषयों से आहत होकर शरीर में ही आत्मबुद्धि करते हैं, तथा जो हिंसा, असत्य-संभाषण, पर धन हरण, पर स्त्री सेवन और परिग्रह में आसक्त हो रहे हैं, मदिरा और मांस के सेवन में संलग्न हैं, वे लोग सुख के स्थान पर दुःखों को ही प्राप्त होते हैं ॥४४॥ अस्वास्थ्यमेतदापन्न नरकाख्यतया नराः । भूगर्भे रोगिणो भूत्वा सन्तापमुपयान्त्यमी ॥४५॥ उपर्युक्त पापों का सेवन करने वाले लोग इस भूतल पर ही अस्वस्थ होकर और रोगी बनकर नरक जैसे तीव्र सन्ताप को प्राप्त होते हैं ॥४५॥ हस्ती स्पर्शनसम्वशो भुवि वशामासाद्य सम्बद्धचते, मीनोऽसौ वडिशस्य मांसमुपयन्मृत्यु समापद्यते। अम्भोजान्तरितोऽलिरेवमधुना दीपे पतङ्गः पतन्। सङ्गीतैकवशङ्ग तोऽहिरपि भो तिष्ठे त्करण्डं गतः ॥४६॥ और भी देखो - संसार में हाथी स्पर्शनेन्द्रिय के वश से नकली हथिनी के मोह पाश को प्राप्त होकर सांकलों से बांधा जाता हैं, मछली वंशी में लगे हुए मांस को खाने की इच्छा से कांटे में फंसकर मौत को प्राप्त होती है, गन्ध का लोलुपी भौंरा कमल के भीतर ही बन्द होकर मरण को प्राप्त होता है, रुप के आकर्षण से प्रेरित हुआ पंतगा दीप-शिखा में गिरकर जलता है और संगीत सुनने के वशंगत हुआ सर्प पकड़ा जाकर पिटारे में पड़ा रहता है ॥४६।। एकै काक्षवशेनामी विपत्तिं प्राप्तुवन्ति चेत् । पञ्चेन्द्रियपराधीनः पुमाँस्तत्र कि मुच्यताम् ॥४७॥ जब ये हाथी आदि जीव एक-एक इन्द्रिय के वश होकर उक्त प्रकार की विपत्तियों को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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