Book Title: Sudarshanodaya Mahakavya
Author(s): Bhuramal Shastri, Hiralal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 149
________________ -------------- 130 ----- अन्नेन नाद्युर्द्विदलेन साकमामं पयो दध्यपि चाविपाकम् । थूकानुयोगेन यतोऽत्र जन्तूत्पत्तिं सुधीनां धिषणाः श्रयन्तु ॥५८॥ चना, मूंग, उडद आदि द्विदल वाले अन्न के साथ अग्नि पर बिना पका कच्चा दूध, दही और छांछ भी नहीं खाना चाहिए, क्योंकि इन वस्तुओं को खाने पर थूक के संयोग से तुरन्त त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, यह बात बुद्धिमानों को बुद्धि-पूर्वक स्वीकार करना चाहिए ॥५८॥ क्षौद्रं किलाक्षद्रमना मनुष्यः किमु सञ्चरेत् । . भङ्गा-तमाखु सुलफादिषु व्यसनितां हरेत् ॥५९॥ विचार-शील मनुष्य क्या मद्य मांस की कोटि वाले मधु को खायेगा? कभी नहीं। तथा उसे भांग, तमाखू, सुलफा, गांजा आदि नशीली वस्तुओं के सेवन करने के व्यसन का भी त्याग करना चाहिए ।५९॥ भावार्थ - विचारशील मनुष्य को उपर्युक्त सभी अभक्ष्य, अनुपसेव्य, अनिष्ट, त्रस-बहुल एवं अनन्त स्थावर काय वाले पदार्थों के खाने का त्याग करना चाहिए, यह जितेन्द्रियता की पहिली सीढ़ी या शर्त गुणप्रसक्त्याऽतिथये विभज्य सदनमातृप्ति तथोपभुज्य। हितं हृदा स्वेतरयोर्विचार्य तिष्ठेत्सदाचारपरः सदाऽऽर्यः ॥६०॥ गुणों में अनुराग पूर्वक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अतिथि को शुद्ध भोजन कराकर स्वयं भोजन करे तथा सदा ही अपने और दूसरे का हृदय से हित विचार कर आर्य पुरुष को सदाचार में तत्पर रहना चाहिए। ॥६०॥ भावार्थ - अन्तदीपकक रूप से ग्रन्थ कार ने इस श्लोक में अतिथि संविभाग व्रत का उल्लेख किया है, जिससे उनका अभिप्राय यह है कि इसी प्रकार विचारशील श्रावक को इसके पूर्ववर्ती ग्यारह व्रतों को विधिवत् सदा पालन करना चाहिए। यह जितेन्द्रिय श्रावक की दूसरी सीढ़ी या प्रतिमा है। मध्ये दिन प्रातरिवाथ सांय यावच्छरीरं तनुमानमायम् । स्मरेदिदानी परमात्मनस्तु सदैव यन्मङ्गलकारि वस्तु ॥६१।। प्रात:काल के समान दिन के मध्य भाग में और सांयकाल सदा ही परमात्म का स्मरण करे। यह परमात्म गुण स्मरण ही जीव का वास्तविक मंगल करने वाला है। इस प्रकार तीनो सन्ध्याओं में भगवान् का स्मरण जब तक शरीर जीवित रहे तब तक करते रहना चाहिए ॥६१॥ भावार्थ - जीवन-पर्यन्त त्रिकाल सामायिक करना यह श्रावक की तीसरी सीढ़ी है। कुर्यात्पुनः पर्वणि तूपवासं निजेन्द्रियाणां विजयी सदा सन् । क तोऽपि कर्यान्न मनःप्रवत्तिमयोग्यदेशे प्रशमैकवत्तिः ॥६२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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