Book Title: Sudarshanodaya Mahakavya
Author(s): Bhuramal Shastri, Hiralal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 123
________________ -------------- 104 ----- सुभगे शुभगे हिनीतिसत्समयः शेषमयः स्वयं निशः । किमु यावकलां कलामये परमस्यापरमस्य हानये ॥३३॥ हे सौभाग्यवती रानीजी, आप उत्तम गृहिणी हैं, स्वयं जरा विचार तो करें, इस समय रात्रि व्यतीत हो रही है और प्रभात-काल हो रहा है, इस समय कौन सी कलामयी बात (करामात) की जाय कि इस विपत्ति से छुटकारा मिल सके ॥३३॥ सन्निधान मिवाऽऽभान्तं यत्नेनैवं निगोपय । येन केन प्रकारेण वामारुपेण सज्जय ॥३४॥ इसलिए अब तो उत्तम निधान (भण्डार) के समान प्रतिभासित होने वाले इसे यहीं कहीं पर सावधानी के साथ सुरक्षित रखो, या फिर जिस किसी प्रकार से वामारूप के द्वारा (त्रिया-चरित फैलाकार) इस आई आपत्ति को जीतने का प्रयत्न करो ॥३४॥ आव्रजताऽऽव्रजत त्वरितमितः भो द्वाःस्थजनाः कोऽयमघमितः ॥ मुक्तक चको दंशनशीलः स्वयमसरलचलनेनाधीलः। भुजगोऽयं सहसाऽभ्यन्तरितः, आवजताऽऽव्रजत त्वरितमितः ॥१॥ अरिरुपोऽस्मांक योऽप्यमनाक्कु सुमन्धयतामभिसर्तुमनाः । कामलतामिति गच्छत्यभितः, आव्रजताऽऽव्रजत त्वरितमितः ॥२॥ खररुचिरिन्दुबिन्दुमश्नाति कण्टके न विद्धेयं जातिः । विषयोगोऽस्ति सुधायाः सरितः आवजताऽऽवजतत्वरितमितः ॥३॥ निष्कासयताऽविलम्बमेनमिदमस्माकं चित्तमनेन । भूराकुलताया भवति हि तदाऽऽवजताऽऽव्रजत त्वरितमितः ॥४॥ तब रानी ने त्रिया-चरित फैलाना प्रारम्भ किया और जोर-जोर से चिल्लाने लगी - हे द्वारपाल लोगो ! इधर शीघ्र आओ, शीघ्र आओ, देखो - यहां यह कौन सर्परूप भुजंग (जार लुच्चा) पापी आ गया है, जो मुक्त-कञ्चुक' है, दंशनशील है और कुटिल चाल चलने वाला है। यह महाभुजंग सहसा भीतर आ गया है। द्वारपालो, जल्दी इधर आओ और इस बदमाश लुच्चे रूप सर्प को बाहिर निकालो। यह मेरा शत्रु बनकर आया है, जो फूलों के रस को अभिसरण करने वाले भौरे के समान मुझ कामलता १ सांप के पक्ष में कांचली रहित, सुदर्शन के पक्ष में वस्त्ररहित २ काटने को उद्यत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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