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. यद्यसि शान्तिसमिच्छ कस्त्वं सम्भज सन्निधिमस्य ।
भूरामादिभ्यास्तिलाञ्जलिमर्पय नर्मोदस्य ॥नय दशमाशु ॥४॥
हे मित्र, जिनवर की वीतराग मुद्रा का दर्शन करो और अपने नयनों को सफल करो । देखो, राग-द्वेष से रहित यह वीतराग मुद्रा कितनी शान्त दिखाई दे रही है कि जिसकी तुलना इस भूतल पर अन्यत्र सुलभ नही है। हमारा यह सौभाग्य है कि हमें ऐसी अत्यन्त दुर्लभ प्रशान्त मुद्रा के दर्शन सुलभ हो रहे हैं । पहले तो जिस जिनराज ने इस समस्त भूमण्डल का राज्य-प्रशासन किया और यहां की जनता को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, कामपुरुषार्थ) के सेवन रुप भोगमार्ग को बतलाया। तदनन्तर भोगों से उदास होकर और राज्य पाट का त्याग कर पद्मासन संस्थित हो नासाद्दष्टि रखकर अपनी आत्मा में तल्लीनता को प्राप्त होकर योग मार्ग को बतलाया इस प्रकार यह वीतराग मुद्रा भोग और योग के अन्तर को स्पष्टरूप से प्रकट कर रही है । जिनभगवान् की यह मूर्ति जो पद्मासन से अवस्थित है और हाथ पर हाथ रखकर निश्वचल विराजमान है, सो संसारी जनों को यह बतला रही है कि आत्म-बल के आगे अन्य सब बल निष्फल हैं । हे भाई, यदि तुम शान्ति चाहते हो, तो इन राज्य-पाट, स्त्री-पुत्रादिक से दूर होकर और सांसारिक कार्यों को तिलाञ्जलि देकर इसके समीप आओ और एकाग्र चित्त होकर के इसकी सेवा-उपासना कर अपना जीवन सफल करो ॥१-४॥ ।
म काफी होलिकारागः ॥
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कदा समयः स समायादिह जिनपूजायाः ॥स्थायी। कञ्चनकलशे निर्मलजलमधिकृत्य मञ्जु गङ्गायाः । बाराधारा विसर्जनेन तु पदयोजिनमुद्रायाः लयोऽस्तु कलङ्ककलायाः
स्थायी॥१॥ मलयगिरेश्चन्दनमथ नन्दनमपि लात्वा रम्भायाः । केशरेण सार्धं विसृजेयं पदयोर्जिनमुद्रायाः, न सन्तु कुतश्चापायाः ॥स्थायी ॥२॥ मुक्तोपमतन्दुलदलमुज्वलमादाय श्रद्धायाः । सद्भावेन च पुजं दत्वाऽप्यने जिनमुद्रायाः, पतिः स्यां स्वर्गरमायाः स्थायी॥३॥ कमलानि च कुन्दस्य च जातेः पुष्पाणि च चम्पायाः । अर्पयामि निर्दर्पतयाऽहं पदोयजिनमुद्रायाः
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