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अथ प्रभाते कृतमङ्गला सा हृदेकदेवाय लसत्सुवासाः । रदांशुपुष्पाञ्जलिमर्पयन्ती जगौ गिरा वल्लकिकां जयन्ती ॥१२॥
इसके पश्चात् प्रभात समय जाग कर और सर्व मांगलिक कार्यों को करके तथा सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर वह सेठानी अपने स्वामी ऋषभदास सेठ के पास गई। वहां जाकर अपने हृदय के एक मात्र देव पति के लिए दान्तोंकी किरणरूप पुष्पाञ्जलि को अर्पण करती हुई और अपनी मीठी वाणी से वीणा को जीतती हुई इस प्रकार बोली ॥१२॥
भो भो विभो कौतुकपूर्णपञ्च - स्वप्नान्यपश्यं निशि मानसञ्च । ममामुकं मेवसमूह जेतो भृङ्गायते तन्मकरन्दहे तोः ॥ १३ ॥
हे स्वामिन् मैंने आज रात में कौतुक परिपूर्ण पांच स्वप्न देखे हैं. उनके मकरन्द (पराग) के सूंघने के लिए मेरा मन भ्रमर जैसा उत्कण्ठित हो रहा है। आप ही मेरे सन्देह रुप मेघ - समूह के जीतने वाले हैं. (इस लिए उन स्वप्नों का फल कहिये । ) ॥१३॥
सुराद्रिरेवाद्रियते मयाऽऽदौ निधाय चित्ते भवदीयपादौ ।
नादौ सुराङ्के च्युतिशङ्कयेव केनोद्धृतः स्तम्भ इवायि देव ॥१४॥
हे देव, आपके चरणों को चित्त में धारण करके ( जब मैं सो रही थी, तब ) मैंने सबसे आदि में सुरगिरि (सुमेरु - पर्वत) देखा, जो कि ऐसा प्रतीत होता है, मानों अधर रहने वाले स्वर्गलोक के नीचे गिरने की शंका से ही किसी ने उसके नीचे अनादि से यह सुद्दढ़ स्तम्भ लगा दिया हो ॥१४॥
द्दष्टः सुरानोकहको विशाल शाखाभिराक्रान्तदिगन्तरालः । किमिच्छदानेन पुनस्त्रिलोकीमापूरयन् हे सुकृतावलोकिन् ॥१५॥
हे सुकृतावलोकिन् (पुण्यशालिन् ) दूसरे स्वप्न में मैंने अपनी विशाल शाखाओं से दशों दिशाओं को पूरित करने वाला और किमिच्छिक दान से त्रिलोकवर्ती जीवों की आशाओं को पूरित करने वाला कल्पवृक्ष देखा है ॥१५॥
सम्भावितोऽतः खलु निर्विकारः प्रस्पष्टमुक्ताफलताधिकारः । पयोनिधिस्त्वद्हृदि वाप्यवार - पारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदार : ॥ १६॥
हे स्वामिन्, तीसरे स्वप्न में मैंने आपके हृदय के समान निर्विकार ( क्षोभ रहित प्रशान्त), अपार, वार, अगाध और उदार सागर को देखा है, जिसमें कि ऊपर मोती स्पष्ट द्दष्टिगोचर हो रहे
थे ॥ १६ ॥
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