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54 -- ------------- भावार्थ - कुमारपना प्राप्त होते ही वह गुरु के पास विद्याध्ययन करने के लिए भेजा गया ॥२९॥ कुशलसद्भावनोऽम्बुधिवत् सकलविद्यासरित्सचिवः । सहजभावेन सज्जातः सुदर्शन एष भो भ्रात : ॥३०॥
हे भाई, कुशलता और सद्-भावना वाला यह सुदर्शन समुद्र के समान सहज भाव से ही समस्त विद्या रुपी नदियों के द्वारा सम्पन्न हो गया और अपने नाम को सार्थक कर दिखाया ॥३०॥
भावार्थ - जैसे समुद्र कुश (जल) के सद्भाव से सदा शोभायमान रहता है और नदियां स्वत: स्वभाव उसमें आकर मिलती रहती हैं, उसी प्रकार यह सुदर्शन अपनी कुशलता और गुरु-सेवा आदि सत्कार्यों के द्वारा अनायास ही सर्व विद्याओं में पारंगत हो गया और इसी कारण वह सच्चा 'सुदर्शन' बन गया।
परमागमपारगामिना विजिता स्यां न कदाचनाऽमुना।
स्म दधाति सुपुस्तकं सदा सविशेषाध्ययनाय शारदा ॥३१॥
परमागम के पारगामी इस सुदर्शन के द्वारा कदाचित् मैं पराजित न हो जाऊं, ऐसे विचार से ही शारदा (सरस्वती) देवी विशेष अध्ययन के लिए पुस्तक को सदा हाथ में धारण करती हुई चली आ रही है ॥३१॥
__भावार्थ - सरस्वती को ‘विणा-पुस्तक-धारिणी' माना गया है। उस पर से कवि ने सुदर्शन को लक्ष्य में रखकर उक्त कल्पना की है।
युवतां समवाप बाल्यतः जडताया अपकारिणीमतः ।
शरदं भुवि वर्षणात् पुनः क्षणवल्लक्षणमेत्य वस्तुनः ॥३२॥
जैसे वर्षा ऋतु में पानी बरसने के कारण भूतल पर कीचड़ हो जाती है और शरद् ऋतु के आने पर वह सूख जाती है, एवं लोगों का मन प्रसन्नता से भर जाता है, उसी प्रकार सुदर्शन बालपने में होने वाली जड़ता (अज्ञता) का अपकार (विनाश) करने वाली और लोगों के मन को प्रसन्न करने वाली युवावस्था को प्राप्त हुआ ॥३२॥
युवभावमुपेत्य मानितं वपुरे तस्य च कौतुकान्वितम् ।
बहु मञ्जुलतासमन्वितं मधुनोद्यानमिवावभावितः ॥३३॥
युवावस्था को प्राप्त होकर इस सुदर्शन का शरीर नाना प्रकार के कौतूहलों से युक्त होकर और अत्यधिक मंजुलता (सौन्दर्य) को धारण कर शोभायमान होने लगा। जैसे कि कोई सुन्दर लताओं वाला उद्यान वसन्त ऋतु को पाकर नाना प्रकार के कौतुकों (फूलों) और फलों से आच्छादित होकर शोभित होने लगता है ॥३३॥
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