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सुदर्शन का यह उत्तर सुनकर अन्य मित्र तो उसके कथन को सत्य समझकर चुप रह गये । किन्तु कपिल नाम का प्रधान मित्र उसके हृदय की बात को ताड़ गया और बन्दर के समान चपलता के साथ मुस्कराता हुआ बोला अहो मित्र, मुझ से भी मायाचार करना नहीं छोड़ते हो ? मैं तुम्हारे अनमनेपन का रहस्य समझ गया हूँ, किन्तु हे दुखी मित्र, मेरी बुद्धि तुम्हारी माया को जानती है, तुम्हारा मन रमा (लक्ष्मी) के समान सुन्दर उस मनोरमा में आसक्त हो गया है, सो यह तो तुम्हारे अनुरूप ही है ॥३८-३९॥
यदा त्वया श्रीपथतः समुद्राद्धे सोम सा कैरवहारमुद्रा । क्षिप्ताऽसि विक्षिप्त इवाधुना तु स्मितामृतैस्तावदितः पुनातु ॥ ४० ॥ सोम (चन्द्र) समान सौम्य मुद्रा के धारक हे सुदर्शन, समुद्र के समान विशाल राजमार्ग वाले बाजार से जाते हुए तुमने जबसे श्वेत कमलों के हार जैसी धवल मुद्रावाली उसे देखा है और उस पर अपनी द्दष्टि फेंकी है, तभी से तुम विक्षिप्त चित्त से प्रतीत हो रहे हो । ( कहो मेरी बात सच है न?) अब तो जरा अपने मन्द हास्यरुप अमृत से इसे पवित्र करो ।
भावार्थ
अब तो जरा मुस्करा कर मेरी बात की सचाई को स्वीकार करो ||४०||
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सुदर्शन त्वञ्च चकोरचक्षुषः सुदर्शनत्वं गमितासि सन्तुष तस्या मम स्यादनुमेत्यहो श्रुता किं चन्द्रकान्ता न कलावता द्रुता ॥
हे सुदर्शन, तुम भी उस चकोर नयना मनोरमा के सुदर्शन बनोगे, इस बात का विश्वास कर हृदय में सन्तोष धारण करो। मेरा अनुमान है कि उसका भी मन तुम पर मोहित हो गया है, क्योंकि कलावान् चन्द्रमा को देखकर चन्द्रकान्तमणि द्रवित न हुई हो, ऐसा क्या कभी सुना गया है? ॥४१॥
तदेतदाकर्ण्य पिताऽप्यचिन्तयत्किमग्रहीच्चित्तविधौ स्तनन्धयः । किमेतदस्मद्वशवर्तिकल्पनमहो दुराराध्य इयान् परो जनः ॥४२
सुदर्शन की मनोरमा पर मोहित होने की बात को सुनकर पिता विचारने लगा कि इस बालक ने अपनी मनोवृत्ति में यह क्या हठ पकड़ ली है । क्या यह अपने बस की बात है ? अहो, अन्य जन दुराराध्य होता है ।
भावार्थ अन्य मनुष्य को अपने अनुकूल करना बहुत कष्ट साध्य होता है, वह अपनी बात को माने, या न माने, यह उसकी इच्छा पर निर्भर ॥४२॥
इति
स्वयमेवाऽऽजगामाहो
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तच्चिन्तनेनैवाऽऽकृ ष्ट : फलतीष्टं
सागरदत्तवाक् सतां रूचिः
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॥४३॥
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