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अर्थात् चातुर्य, आदि अनेक कलाओं का धारक था। और वह सेठ महान् चातुर्य, आदि अनेक कलाओं का धारक था। और वह सेठ महान् पाशुपत्य को आश्रित होकर के भी किसी भी प्रकार से द्दष्टि की विषमता को नहीं प्राप्त था । भावार्थ - पशुपति नाम महादेव का है, पर वे विषम द्दष्टि हैं, क्योंकि उनके तीन नेत्र हैं । पर यह सेठ सहस्रों गाय-भैंस आदि पशुओं का स्वामी हो करके भी विषम द्दष्टि नहीं था, किसी को बुरी दृष्टि से नहीं देखता था, किन्तु सबको समान द्दष्टि से देखता था ॥३॥
मतिर्जिनस्येव पवित्ररूपा बभूव नाभिभ्रमणान्धुकूपा। सधर्मिणी तस्य वणिग्वरस्य कामोऽपि नामास्तु यदिङ्गवश्यः ॥४॥
उस वैश्यनायक सेठ वृषभदास की सेठानी का नाम जिनमति था, तो वह जिनभगवान् की मति के समान ही पवित्र रुप वाली थी, दोष-रहित थी। जिनभगवान् की मति संसार-परिभ्रमणरुप अंधकूप का अभाव करती है और सेठानी की नाभि दक्षिणावर्त भ्रमण को लिए हुए कूप के समान गहरी थी। जैसे जिनमत के अभ्यास से काम-वासना मिट जाती है, वैसे ही सेठानी की चेष्टा से कामदेव उसके वश में हो रहा था ॥४॥
लतेव मृद्वी मृदुपल्लवा वा कादम्बिनी पीनपयोधरा वा।
समेखलाभ्युन्नतिमनितम्बा तटी स्मरोत्तानगिरे रियं वा ॥५॥ वह सेठानी तला के समान कोमलाङ्गी मृदुल पल्लव वाली थी। जैसे लता स्वयं कोमल होती है, और उसके पल्लव (पत्र) और भी कोमल होते हैं, वैसे ही सेठानी का सारा शरीर ही कोमल था, पर उसके हस्त वा चरण तल तो और भी अधिक कोमल थे। वह कादम्बिनी (मेघमाला) के समान पीनपयोधरा थी। जैसे मेघमाला जल से भरे हुए बादलों से युक्त होती हैं, उसी प्रकार वह सेठानी विशाल पुष्ट पयोधरों (स्तनों) को धारण करती थी। और वह सेठानी कामरुप उत्तान पर्वत की मेखला-युक्त उपत्या का सी प्रतीत होती थी। जैसे पर्वतक उपत्य का कहीं समस्थल और कहीं विषमस्थल होती है, वैसे ही यह सेठानी भी मेखला अर्थात् करधनी से युक्त थी और उदरभाग में समस्थल तथा नितम्ब भाग में उन्नत स्थलवाली थी ॥५॥
कापीव वापी सरसा सुवृत्ता मुद्रेव शाटीव गुणैक सत्ता। विधोः कला वा तिथिसत्कृतीद्धाऽलङ्कारपूर्णा कवितेव सिद्धा ॥६॥
वह सेठानी जल से भरी हुई वापी के समान सरल थी, मुद्रिका के समान सुवृत थी, जैसे अंगूठी सुवृत अर्थात् गोल होती है, उसी प्रकार वह सुवृत्त अर्थात् उत्तम आचरण करने वाली थी। साड़ी के समान एक मात्र गुर्गों से गुम्फित थी, जैसे साड़ी गुण अर्थात् सूत के धागों से बुनी होती है, उसी प्रकार वह सेठानी पातिव्रत्यादि अनेक गुणों से संयुक्त थी। चन्द्रमा की कला के समान तिथिसत्कृतीद्धा थी । जैसे चन्द्र की बढ़ती हुई कलाएँ प्रतिदिन तिथियों को प्रकट करती है, वैसे ही वह सेठानी प्रतिदिन
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