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ने रात्रि में सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, समुद्र, विमान और निघूम अग्नि पांच स्वप्न देखे हैं । इनका क्या रहस्य है, सो हमलोग नहीं जानते हैं ॥३४॥
किं दुष्फला वा सुफलाऽफला वा स्वप्नावलीयं भवतोऽनुभावात् । भवानहो दिव्यद्दगस्ति तेन संश्रोतुमिच्छा हृदि वर्तते नः ॥३५॥
यह स्वप्नावली क्या दुष्फलवाली है, अथवा सुफलवाली है, या निष्फल जानेवाली है, यह बात हम आपकी कृपा से जानना चाहते है। अहो भगवन्, आप दिव्य दृष्टि हैं, अतएव हमारे मन में इन स्वप्नों का फल सुनने की इच्छा है ॥३५॥
श्रीश्रेष्ठिवक्त्रेन्दुपदं वहन्वा स्वयं गुणानां यतिराडुदन्वान् ।
एवं प्रकारेण समुज्जगर्ज पर्यन्ततो मोदमहो ससर्ज ॥३६॥ ___ श्री वृषभदास सेठ के मुखरुप चन्द्र से निकली हुई वाणी रुप किरण का निमित्त पाकर गुणों के सागर मुनिराज ने इस प्रकार से गंभीर गर्जना की, जिससे कि समीपवर्ती सभी लोग प्रमोद को प्राप्त हुए ॥३६॥
अहो महाभाग तवेयमार्या पुम्पूतसन्तानमयैक कार्या । भविष्यतीत्येव भविष्यते वा क्रमः क्रमात्तद्गुणधर्मसेवा ॥३७॥
अहो महाभाग, तुम्हारी यह भार्या पुनीत पुत्र रूप सन्तान को उत्पन्न करेगी । उस होनहार पुत्र के गुण-धर्मों को क्रमशः प्रकट करने वाले ये स्वप्न हैं ॥३७॥
स्वप्नावलीयं जयतृत्तमार्था चेष्टा सतां किं भवति व्यपार्था ।
कि मर्क वच्चाम्रमहीरुहस्य पुष्पं पुनर्निष्फलमस्तु पश्य ॥३८॥ ___यह स्वप्नावली उत्तम अर्थ को प्रकट करने वाली है। क्या सज्जनों की चेष्टा भी कभी व्यर्थ जाती है। क्या आक वृक्ष के पुष्प के समान आम्र के पुष्प भी कभी निष्फल जाते हैं, इसे देखो (विचारो) ॥३८॥
भावार्थ - आकड़े के फूल तो फल-रहित होते हैं, परन्तु आम्र के नहीं। इसी प्रकार दुर्भाग्य वालों के स्वप्न भले ही व्यर्थ जावें, किन्तु सौभाग्यवालों के स्वप्न व्यर्थ नहीं जाते। वे सुफल ही फलते हैं।
भूयात्सुतो मेरुरिवातिधीरः सुरद्रु वत्सम्प्रति दानवीरः । समुद्रवत्सद्गुणरत्नभूपः विमानवत्सौरभवादिरूपः ॥३९॥
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