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19 (१०) नवें सर्ग के ५८वें श्लोक में द्विदल अन्न को कच्चे दूध, दही और छांछ के साथ खाने का
निषेध किया गया है। इसकी विशद व्याख्या करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है - "वर्तमान के कुछ जैन महानुभाव कहते हैं कि कच्चे दूध और कच्चे दूध से जमे दही के साथ द्विदल अन्न नहीं खाना चाहिए। गरम दूध से जमे हुये दही को पुनः गरम करने की क्या जरुरत है? और ऐसे लोग अपने कथन की पुष्टि में पं. आशाधर के सागार धर्मामृत के पांचवें अध्याय का 'आमगोरससंप्रक्तं द्विदलं' इत्यादि २८ वां श्लोक प्रस्तुत करते हैं. पर इस श्लोक में आये हुए 'आम' शब्द का अर्थ है अनग्नि पक्क, तथा गोरस का अर्थ है दूध और दही। आम विशेषण है और गोरस विशेष्य है। 'आमौ च तौ गोरसौ दुग्ध-दधिनी ताभ्यां संप्रक्तं द्विदलं'। इसका अर्थ होता है- कच्चे दूध से या कच्चे दही से मिला हुआ द्विदल। किन्तु 'कच्चे दूध के दही से,' ऐसा अर्थ कहां से लिया जा सकता है। स्वयं पं. आशाधरजी ने भी अपनी टीका में यही अर्थ किया है। देखो
नाहरेन्न भक्षयेद् दयापरः। किं तत्? द्विदलं मुद्र-माषादि धान्यम् । किं विशिष्ट? आमेत्यादि-आमेनानग्निपक्के न गोरसेण दना अक्केथितक्षीरादिसम्भूतेन, तक्रेण च संप्रक्तं' इत्यादि। - अर्थात् बिना गरम किये हुये गोरस यानी दूध और दही के साथ, तथा बिना गरम किये हुए दूध वगैरह की बनी छांछ के साथ मिला हुआ, ऐसा द्विदल अन्न। अब यदि 'अक्कथितक्षीरादिसम्भूतेत' इस विशेषण को इसके पूर्व के दधि शब्द का मान लिया जाय, तो फिर इसमें जो 'आदि' शब्द हैं, वह व्यथ रहता है। अतएव वह विशेषण तो आगे वाले तक्र शब्द का है। जिस दूध में से, या दही में से लोनी (मक्खन) निकाल लिया जाता है उसे तक्र या छाछ कहते हैं।
किञ्च- कितने ही पूर्वाचार्यों ने तो हर हालत में ही क्या दही और दूध दोनों के ही साथ द्विदल खाने का निषेध किया है। देखो
"वेदल मिसियउ देहि महिउ भुत्तु ण सावय होय। खद्दयि दंसण भंगु पर समत्तउ मइलेइ ॥३६॥" (योगीन्द्र देव कृत श्रावकाचार) इसी प्रकार श्री श्रुतसागर सूरि ने भी चारित्र पाहुड की टीका में लिखा है"द्विदलान्न मिश्रं दधि तक्रं खादितं सम्यक्त्वमपि मलिनयेदिति"।
(पृष्ठ ४३) - उक्त दोनों ही उद्धरणों में यह बतलाया गया है कि कच्चे और पक्के दोनों ही तरह के गोरस के साथ द्विदल अन्न खाने वाला अपने सम्यक्त्व को भी मलिन कर देता है। फिर व्रतीपना तो रहेगा ही कहां से।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह भली भांति ज्ञात हो जाता है कि पक्के दूध के जमाये हुये कच्चे दहीछांछ के साथ द्विदल अन्न के खाने को किसी भी जैनाचार्य ने भोज्य नहीं बतलाया है।
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