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_.. 27 .... अङ्गीकृता अप्यमुना शुभेन पर्यन्तसम्पत्तरुणोत्तमेन। श्रयन्ति वृद्धाम्बुधिमेव गत्वा ता निम्नगा एव जडाशयत्वात् ॥१८॥
उस देश की निम्नगा (नदियां) वस्तुतः निम्नगा हैं अर्थात् नीचे की ओर बहने वाली हैं। यद्यपि उन नदियों के दोनों तटों पर उद्गम स्थान से लेकर समुद्र में मिलने तक बराबर सघन उन्नत एवं उच्च वृक्ष खड़े हैं, तथापि जड़ाशय (मूर्ख-हृदय) होने से वे वृद्ध समुद्र के पास जाकर ही उसका आश्रय लेती हैं ॥१८॥
भावार्थ - संस्कृत साहित्य में 'ड' और 'ल' में भेद नहीं माना जाता। इस श्लोक में कवि ने यह भाव व्यक्त किया है कि कोई नवयुवती स्वयंवर मंडप में अनेक नवयुवकों के लगातार आदि से अन्त तक बैठे होने पर भी उन सबको छोड़कर यदि वह सबसे अन्त में बैठे हुए बूढ़े मनुष्य को वरण करे तो उसे जड़ाशय अर्थात् महामूर्ख ही कहा जायेगा। इसी प्रकार उस देश की जल से भरी हुई नदियों के दोनों किनारों पर एकसे बढ़कर एक उत्तम वृक्ष खड़े हैं, फिर भी वे नीचे को बहती हुई खारे
और बूढ़े समुद्र से जाकर ही मिलती हैं। इसलिए उनका निम्नगा अर्थात् नीच के पास जानेवाली यह नाम सार्थक ही है। इस व्यंग्य से कवि ने यह भाव व्यक्त किया है कि उस अंगदेश में जल से भरी हुई नदियां सदा बहती रहती थी।
पदे पदे पावनपल्वलानि सदाम्रजम्बूज्वलजम्भलानि । सन्तो विलक्ष्या हि भवन्ति ताभ्यः सत्र प्रपास्थापनभावनाभ्यः ॥१९॥
उस देश में स्थान स्थान पर पवित्र जल से भरे हुए सरोवर थे और आम, जामुन, नांरगी आदि के उत्तम फलों से लदे हुए वृक्ष थे. इसलिए उस देश के धनिक वर्ग की सदाव्रतशाला खोलने और प्याऊ लगवाने की भावनाएं पूरी नहीं हो पाती थीं। क्योंकि सर्वसाधारण लोगों को पद-पद पर सरोवरों से पोने को पानी और वृक्षों से खाने को मिष्ट फल सहज में ही प्राप्त हो जाते थे ॥१९॥
ग्रामान् पवित्राप्सरसोऽप्यनेक-कल्पांघ्रिपान्यत्र सतां विवेकः ।
शस्यात्मसम्पत्समवायिनस्तान् स्वर्गप्रदेशान्मनुते स्म शस्तान् ॥२०॥
उस देश के ग्राम भी सज्जनों को स्वर्ग सरीखे-प्रतीत होते थे। जैसे स्वर्ग में उत्तम अप्सराएं रहती हैं, वैसे ही उन गांवों मे निर्मल जल के भरे हुए सरोवर थे। जैसे स्वर्ग में नाना जाति के कल्पवृक्ष होते हैं, उसी प्रकार उन गावों में भी अनेक जाति के उत्तम वृक्ष थे । जैसे स्वर्ग में नाना प्रकार की प्रशंसनीय सम्पदा होती है, उसी प्रकार उन गांवों में भी नाना जाति के धान्यों से सम्पन्न खेत थे। इस प्रकार वे गांव स्वर्ग जैसे ही ज्ञात होते थे ॥२०॥
पञ्चाङ्गरुपा खलु यत्र निष्ठा सा गोचराधारतयोपविष्टा। भवानिनो वत्सलताभिलाषी स्पृशेदपीत्थं बहुधान्यराशिम् ॥२१॥
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