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प्रथम संस्करण से
हिन्दी अनुवादः
गृहाश्रम में बाल ब्रह्मचारी श्री भूरामल नाम से प्रसिद्ध और अब श्री पूज्य मुनि ज्ञानसागर नाम से कहे जाने वाले महापुरुष के द्वारा विरचित इस सुदर्शनोदय नामक काव्य को हमने विहङ्गम द्दष्टि से देखा। नौ सर्गोंवाला यह काव्य चम्पापुरी के सुदर्शन सेठ का चरित वर्णन करता हुआ जिनोपदिष्ट मोक्ष-लक्ष्मी का पोषण करता है। प्रस्तुत काव्य के धीरोदात्त नायक की ऐसी कौतुहल-जनक कथा-वस्तु कवि ने अपनी कविता के लिए चुनी है कि वह इस काव्य के आद्योपान्त पढ़ने की उत्सुकता को शान्त नहीं करती, प्रत्युत उत्तरोत्तर प्रतिसर्ग वह बढ़ती ही जाती हैं। प्रसन्न एवं गम्भीर वैदर्भी रीति से प्रवहमान इस सरस्वती नदी के प्रवाह में सहृदय पाठकों के मनरुप मीन विलासपूर्वक उद्वर्तन-निवर्तन करने लगते हैं । अनुप्रास श्लेष, उपमा, उत्पेक्षा और विरोधाभास आदि अलङ्कार, इसे विशेष रूप से उज्जवल और विभूषित करते हैं । श्यामकल्याण, कव्वाली, प्रभाती, सारंग, काफी इत्यादी रागों की सुन्दर ध्वनि उसकी स्वाभाविक सुन्दरता को दुगुणी करती हुई अन्य काव्यों में दुर्लभ ऐसे दिव्य संगीत को रचती है। महाकाव्य के अनुकूल नगर-वर्णन, नायिका-वर्णन, विलास-वर्णन, निसर्ग-वर्णन आदि गुण भी सहज रुप से इस काव्य में यथा स्थान प्रसंग के अनुसार गूंथे गये हैं। महाकाव्य के होते हुए भी इसमें जैन आचार और दर्शन रुप समुद्र के मंथन से उत्पन्न नवनीत (मक्खन) ऐसी कुशलता से समालिम्पित है कि जिससे इस काव्य की कान्ता-सम्मित सुन्दर उपयोगिता मूर्तिमती होकर दिखाई देती है यह काव्य केवल दर्शनशास्त्र ही नहीं है, बल्कि भगवान् जिनराज का धर्मशास्त्र भी है, जिसे कि कवि ने मोक्ष • मार्ग पर चलने वाले मुनि और श्रावकादि के उद्देश्य से निर्माण किया है। विलासिनी ब्राह्मणी, राजरानी
और नर्तकी वेश्या आदिक जो कि एक मात्र सांसारिक विषयों के लोलुपी हैं-उनके मुखों से भी उपदेश कराया है जो यह अभिप्राय व्यक्त करता है कि धर्म और दर्शन के निर्णय में मनुष्य को सदा विवेकशील होना चाहिए, क्योंकि ऊपरी तौर से किसी वस्तु का देखना कदाचित् भ्रामक भी हो सकता है। दूसरी बात यह भी सूचित होती है कि उस समय ऐसे अति विषयी लोग भी शास्त्र और दर्शन के तत्त्वज्ञ थे, तथा उनका बहुलता से प्रचार था। .
इस काव्य के परिशीलन से यह प्रतिभासित होता है कि इसमें काव्य-सुलभ पूर्ण सौन्दर्य के दर्शन होने पर भी मूल में वैराग्य और उसके द्वारा मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति ही कवि का प्रमुख प्रतिपाद्य तत्त्व रहा है। जो कि श्रीमान् मुनिवर्य ज्ञानसागरजी महाराज के आज तक के जीवन में व्याप्त धर्म के सर्वथा अनुरुप है। स्याद्वाद महाविद्यालय काशी के भूतपूर्व स्नातक महानुभाव यतः बालब्रह्मचारी हैं अतः सरस्वती देवी के ये सहज कृपापात्र बने हैं। छात्र जीवन में भी इन्होंने पराया अवलम्बन नहीं लिया, किन्तु किसी भी कार्य को करके उससे प्राप्त धन को लाकर और छात्रालय में शुल्क रुप से दे करके ही रहते थे। नैषधचरित के समान एक महाकाव्य के रचने की आपके हृदय में परम उत्कण्ठा थी। तदनुसार आपने
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